बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले ना भीख
" बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख " आज यह कहावत भीखू और उसकी पत्नी रमिया के लिए चरितार्थ हो गई थी। नही समझ में आया ना?
आएगा भी कैसे? मैंने अभी तक आप सभी को भीखू से तो मिलाया ही नही। चलिए! चलते है आज से पाॅंच साल पहले! जब भीखू गांव की सादगी को साथ लेकर इस शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आया था।
अपना गाॅंव और अपनों का साथ किसे प्रिय नहीं होता? लेकिन रोजी- रोटी एक ऐसी परेशानी लेकर सबके जीवन में आती है जिससे निकलने के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही पड़ता है और भीखू को भी करना पड़ा।
विरासत में मामूली सी जमीन और झोपड़ी नुमा घर के अलावा भीखू को कुछ भी नहीं मिला था। मामूली सी जमीन में दिन - रात दुगनी - चौगुनी मेहनत करने के बावजूद भी वह इतना अनाज नहीं उगा पता था कि महीने भर भी उसके परिवार का पालन पोषण सही तरीके से हो सके।
भीखू मेहनती था, मेहनत से उसे कभी भी परहेज नही रहा था लेकिन वह करे तो क्या करें? सही जगह और सही समय पर किया गया काम ही हमें हमारे जीवन में सफल बनाता है यह बात उस दिन उसके समझ में आई जब उसका चचेरा भाई शहर में लगे नौकरी की खुशखबरी देने उसके पास आया।
बातों ही बातों में शहर की बहुत सारी बातें उसने भीखू के सामने रखी। उसकी बातें सुनकर भीखू के मन में यह उम्मीद जगी कि वह भी शहर जाकर मेहनत - मजदूरी करके इतना तो पैसा कमा ही लेगा कि अपने परिवार का भरण - पोषण अच्छी तरह कर सके।
ऑंखों में भविष्य के सुनहरे सपने लिए भीखू शहर तो आ गया लेकिन यहां पर भी जिंदगी इतनी आसान नहीं थी जितनी उसे उस वक्त लगी थी जब उसके चचेरे भाई ने शहर के बारे में उसे बताया था।
गाॅंव लौटकर वह अपने माता-पिता और बीवी- बच्चे के मन में जगी उम्मीद को नाउम्मीद नहीं करना चाहता था। शहर में किसी तरह वह अपनी जिंदगी बसर कर रहा था। कुछ दिन ठेकेदार के यहां ठेके पर काम करने के बाद भी जब वह ज्यादा पैसे नहीं कमा पाया तो वही ठेके पर काम करने वाले एक आदमी ने उससे एक दिन कहा कि हम दोनों मिलकर एक सब्जी का ठेला लगा लेते है, पास में ही मेरा गांव है वहां पर सब्जियों की अच्छी - खासी खेती होती है। हम कम दामों में वहां से सब्जियां खरीद कर लाएंगे और शहर में उसे अधिक दामों में बेचकर मुनाफा कमाएंगे।
भीखू को उसकी बात जंच गई। दोनों ने ठेले पर सब्जियां बेचनी शुरू कर दी। धीरे-धीरे मुनाफा भी होने लगा। भीखू ने कुछ पैसे भी जमा कर लिए। सब कुछ अच्छे से चल रहा था तभी उसके साथ काम करने वाले उसके पार्टनर की पत्नी बहुत बीमार पड़ गई जिसके कारण उसके पार्टनर को पैसों की जरूरत पड़ गई और उसे पैसों के लिए अपना ठेला भी बेचना पड़ गया लेकिन भीखू के लिए अच्छी बात ये रही कि उसके पार्टनर ने अपना ठेला भी भीखू को ही बेचा।
भीखू पहले तो कहीं भी जाकर सो लेता था लेकिन जब उसने ठेला खरीद लिया तब उसके सामने यह समस्या आई कि वह अपने ठेले को कहां पर रखेगा?
इसी उधेड़बुन में वह अपनी सब्जियों का ठेला लेकर सुभाष नगर मोहल्ले में घुसा। आज उसकी नजर सब्जियां बेचने पर कम कोई घर देखने पर अधिक थी। एक जगह पर जाकर उसने अपने ठेले को रोका और उस जगह का मुआयना करने लगा।
ऊपर घर दिख रहा था और नीचे शायद गैरेज के लिए वह छोटी सी जगह बनाई गई थी जिसमें अभी ताला लगा हुआ था। भीखू ने सोचा कि छोटी सी जगह है तो किराया भी कम ही होगा। यह सोचकर उसने नीचे से ही आवाज लगाई , कोई है? ....... कोई है?.....
कुछ देर बाद घर की बालकनी से एक बुजुर्ग महिला ने भीखू की तरफ देखा और पूछा क्या बात है?
" माॅं जी मुझे अपना ठेला रखने के लिए यह जगह चाहिए था, क्या आप मुझे किराए पर यह जगह देंगी?" बिना कोई भूमिका बांधे भीखू ने कहा।
"हमारा उसमें कबाड़ का सामान रखा है जिसे हम कहीं और नहीं रख सकते। तुम देख लो यदि उसमें तुम्हारा ठेला आ जाए तो तुम रख लेना।" बुजुर्ग महिला ने कहा।
थोड़ी देर बाद बुजुर्ग महिला धीरे-धीरे नीचे आई और उन्होंने भीखू को चाबी देते हुए कहा कि खोल कर देख लो यदि तुम्हारे काम की है यह जगह तो यहां पर तुम अपना ठेला रख सकते हो।
भीखू ने ताला खोला। आधे से अधिक जगह पर सामान बिखरा पड़ा था फिर भी इतनी जगह थी कि भी भीखू का ठेला उसमें आ जाता।
भीखू ने कुछ सोचा और बुजुर्ग महिला की तरफ देखते हुए कहा " माॅं जी ! मेरा ठेला तो इसमें आ जाएगा लेकिन ज्यादा सामान तो आपका ही है इसलिए मैं बहुत ज्यादा किराया आपको नहीं दे पाऊंगा।"
" किराए की चिंता मत करो! तुम्हारे सब्जियों का ठेला है, कभी-कभी हम बुड्ढे - बुड्ढिओ को सब्जियां खिला देना।" हंसते हुए बुजुर्ग महिला ने कहा।
बुजुर्ग महिला की बात सुनकर भीखू ने हाथ जोड़कर कहा " नही... नही माॅंजी! मैं ऐसे अपना ठेला यहां पर नहीं रख सकता। आप किराया लेंगी तभी मैं अपने ठेले को यहां पर रखूंगा।
" कोई और होता तो मान जाता लेकिन तुम्हारी आंखों मैं मुझे भोलेपन के साथ-साथ सच्चाई भी दिख रही है इसलिए जितना तुम्हें लगता है कि इसका किराया होगा तुम मुझे दे देना। " बुजुर्ग महिला ने मुस्कुराते हुए कहा।
उस दिन के बाद से भीखू अपना ठेला उसी गैरेज में रखने लगा। अधिकतर तो वह बाहर ही फुटपाथ पर सोता था लेकिन जब ज्यादा ठंडी होती तो वह गैरेज में आ जाता।
दिन बीतते जा रहे थे और उसके साथ - साथ भीखू का उनके प्रति व्यवहार भी उन बुजुर्गों के मन में अपनापन के भाव जगाते जा रहे थे। एक दिन जब भीखू सब्जियां बेचकर अपना ठेला गैरेज में लगाने आया, आस-पड़ोस के लोगों से उसे पता चला कि बुजुर्ग महिला और उसके पति दोनों ही आज घर पर नही है।
कारण पूछने के बाद वह दौड़ते हुए उस अस्पताल में पहुंचा जहां पर बुजुर्ग महिला के पति को भर्ती कराया गया था। उसके बाद तो भीखू ने अस्पताल में सब कुछ करने का जिम्मा अपने हाथों में ही ले लिया था।
अस्पताल से एक हफ्ते बाद जब बुजुर्ग महिला और उसके पति घर लौटे तो आस-पड़ोस के सभी लोगों की जुबान पर एक ही शब्द था कि भीखू ने अपने बेटे से भी ज्यादा इनकी सेवा की है। अस्पताल में ही जब ये लोग थे भीखू ने अपनी पत्नी को भी उनकी सेवा करने के लिए बुला लिया था।
बुजुर्ग महिला ने गैरेज का पूरा सामान कहीं और रखवा कर पूरा गैरेज ही अब भीखू को रहने के लिए दे दिया था। भीखू की तरह ही उसकी पत्नी भी दिन - रात उनकी सेवा में लगी रहती थी।
दो साल बीत चुके थे लेकिन अभी तक भीखू ने उन बुजुर्ग महिला के बेटे या बेटियों को वहां पर नहीं देखा था।
जब भी वह उनके बेटे या बेटियों के बारे में बातें शुरू करता बुजुर्ग महिला की आंखों से झर- झर आंसू बहने लगते जिसे देखकर भीखू और कोई प्रश्न नहीं कर पाता।
चार बरस बीतने के बाद एक दिन वह मनहूस दिन भी आया जब बुजुर्ग महिला ने हमेशा के लिए अपने पति और इस दुनिया को अलविदा कह दिया। बुजुर्ग महिला के पति की बहुत बुरी हालत हो गई थी और इस हालत से उबारने में दो दिन बाद और दो दिनों के लिए आए उनके बेटों ने कुछ भी नहीं किया। यदि किसी ने उस अवस्था से उन्हें उबरने में मदद की वह और कोई नही भीखू और उसकी पत्नी थे।
एक साल बाद ही वह दिन भी आ गया जब बुजुर्ग महिला के पति भी उनके पास चले गए। अपनी माॅं की मौत की खबर ने दोनों बेटों को दो दिन के बाद ही सही लेकिन दोनों बेटे आ गए थे लेकिन पिता की मौत की खबर सुनकर बेटो ने आने में कोई जल्दी नहीं की। एक बेटा अपने पिता की मौत के पाॅंच दिन के बाद पहुंचा तो दूसरा छठवें दिन।
आस-पड़ोस के लोगों को ये देखकर आश्चर्य हो रहा था कि बेटों ने ये जानने तक की जरूरत नहीं समझी थी कि उसके पिता को मुखाग्नि किसने दी ? उनके आने में तो देर हो चुकी थी लेकिन हाॅं उन्होंने आते ही भीखू को घर से निकालने में देरी नहीं की। वे दोनों अपने पिता की तेरहवीं तक भी रुकना नहीं चाहते थे क्योंकि अब उन दोनों को अपने पिता के घर को बेचकर जाने की जल्दी थी तभी एक सुबह मोहल्ले में ही रहने वाले बंसल जी आएं।
बंसल जी पेशे से वकील थे और उन्होंने जो कागजात बुजुर्ग दंपत्ति के दोनों बेटे को दिखाएं उसे देखकर दोनों ने गांव में जाकर भीखू को खूब मारा और उसके पिता ने जो वह घर भीखू के नाम कर दिया था उसे वापस से उन दोनों के नाम करने को कहा।
भीखू को तो पहले से भी उस घर का लालच नहीं था। वह हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो गया लेकिन वकील बंसल जी और मोहल्ले के कुछ बुजुर्ग इस बात पर अड़ गए कि बेटे और बहू की तरह ही भीखू और उसकी पत्नी ने उन बुजुर्ग दंपत्ति की सेवा की थी और तो और बुजुर्ग दंपत्ति ने पूरे होशो हवास में वह वसीयत बनवाई थी कि यह घर वे भीखू को देना चाहते है।
मोहल्ले वालो ने बुजुर्ग दंपत्ति के दोनों बेटों को मातृ- पितृ धर्म नहीं निभाने पर खूब सुनाया। अपनी बेइज्जती होते देखकर दोनों वहां से चले गए। वकील बंसल जी और मोहल्ले वालों ने भी भीखू और उसके पूरे परिवार को गांव से लाकर यहां रहने में बहुत मदद की। आज भी उस मोहल्ले में रहने वाले वें लोग जो उस वक्त मौजूद थे सबकी जुबान पर भीखू और उसके परिवार को देखकर एक ही कहावत निकलती है "बिन मांगे मोती मिले! मांगे मिले न भीख।"
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धन्यवाद 🙏🏻🙏🏻
गुॅंजन कमल 💗💞💗
# मुहावरों की दुनिया
डॉ. रामबली मिश्र
05-Feb-2023 09:34 PM
शानदार प्रस्तुति 👌
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Varsha_Upadhyay
05-Feb-2023 06:42 PM
Nice 👍🏼
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Mohammed urooj khan
04-Feb-2023 06:08 PM
👌👌👌👌
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