पर्दा.. शहरी जीवन
गीदड़ की मौत आती है
शहर की तरफ भागता है
अपने वातावरण और समाज को त्यागता है
कौआ जब मोर का पंख लगाता है
बहुत दुख पाता है
अंत में बुद्धू बन लौट आता है
आदमी
अपनी चादर से अधिक
पाँव फैलाने पर
अपने को पूरी तरह ढ़क नहीं पाता है
बाद में बहुत पछताता है
और
चिन्ताओं के बोझ से रात-रात जागता है
अपनी स्थितियों को झुठलाने से
जार-जार रोता है
अपना आपा खोता है
अपनी राह में
अपने -आप ही काँटा बोता है
गिर जाने की आशंकाओं के बावजूद
आदमी
अपनी सीमा-रेखा फलांगता है
अपने चेहरे पर एक पर्दा टांगता है
सहज नहीं तो उचांगता है
और
पर्दे का मूल्य किसी और से माँगता है
शहर की चकाचौंध में डूब जाता है
फिर बड़ा पछताता है
दिखावे के पीछे भागता
कभी गीदड़ तो कभी कौआ सा
जीवन पाता है
गाँव छोड़ जब शहर जाता है
©®
कविता झा 'काव्या कवि '
Ravi Goyal
23-Sep-2021 10:46 PM
Waah bahut khoob 👌👌
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🤫
20-Sep-2021 11:28 PM
बेहतरीन रचना।
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