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गीत-झंकृत मन के तार...

गीत-झंकृत मन के तार.....
झंकृत मन के तार हुए तो,
बलखाता सा गीत बना।
भाव-तरंगों की छलनी से,
स्वर भी निकला छना-छना।।

निरख लालिमा उषः काल की,
शब्दों ने आकार लिया।
विमल चंद्र के शुचि प्रकाश ने,
अर्थों को साकार किया।
वन-उपवन की हरियाली सँग,
बना गीत-कुल पगा-सना।
     स्वर भी निकला छना-छना।

पशु-पंछी की बोली-भाषा,
सुन-सुन सीखा कवि-मन ने।
सरिता की धारा से सीखा,
अविरल गति के लेखन ने।
दिये प्रशिक्षण उसको ही तो,
तरुवर-शाखा और तना।।
     स्वर भी निकला छना-छना।।

भाव-सिंधु में डूब-डूब कर,
जब कवि खाया हिचकोले।
चिंतन उसका चित्र उकेरा,
मानस पर हौले-हौले।
तब जन्मी सुंदर कविता भी,
लिए काव्य रस घना-घना।।
    स्वर भी निकला छना-छना।।

कवि-मन चंचल पंछी जैसा,
इधर-उधर भटका करता।
जहाँ हुआ आभास सत्य का,
वहीं रुका-अटका रहता।
रचना कर सुंदर गीतों का,
सदा रहे उन्मुक्त मना।।
     स्वर भी निकला छना-छना।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                    9919446372

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4 Comments

Punam verma

09-Feb-2023 08:52 AM

Very nice

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Abhinav ji

09-Feb-2023 08:08 AM

Very nice 👌

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बहुत ही सुंदर सृजन और अभिव्यक्ति एकदम उत्कृष्ठ

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