Kavita Jha

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शहरी जीवन (कविता)

रूखा सूखा खाते थे और 
रहते थे कच्चे मकानों में भले 
पर घर और  रिस्ते होते थे पक्के
सुख दुःख में देते थे साथ
याद बहुत आता है गाँव
वो गाँव की मिट्टी की खुशबू 
वो अमवा की डाली पर झूला
खेत खलिहान नदी और तालाब
सब छूटा है जब से 
लगता है रब रूठा हमसे
आँगन और दलान
याद बहुत आता है वो अपना गाँव 
जहाँ थी स्वच्छ हवा और  पानी
प्रदुषण की नहीं थी कोई कहानी 
घरेलू नुस्खों से हो जाते थे ठीक 
मिलती है अब हमको सीख
ना चकाचौंध देख शहर की
छोड़ते अपना गाँव
जहाँ मिलती थी प्रकृति की छाँव
पानी बोतलों में बिकता है
साँसों पर पहरा लगता है
सब अपने में व्यस्त हैं
शहरी जीवन शैली अपनाते
अपनों को भुलाते 
अपनों की ख़ातिर जो छोड़ा गाँव
आज अपने ही छूटते जाते हैं
बच्चों को मिले हर सुविधा
शहर के अच्छे स्कूल में पढ़े
पढ़ लिख कर अफसर बने
दादा दादी नाना नानी 
रह गए गाँव में
बचपन रहे अधुरा 
उनके लाड प्यार से
मोबाइल कम्प्यूटर संग बीत रहा 
अब बचपन
कब आया कब चला गया
ना दादा का घोड़ा बनना
ना दादी की सीख
लौटना मुश्किल है अब गाँव तो
छुट्टियाँ बिताने ही जाओ बच्चों संग
खुद भी बच्चा बन जाओ
शहरी जीवन की चकाचौंध से
कभी तो निकलो थोड़ा बाहर
गाँव तुम्हें बुलाता है
गाँव तुम्हें बुलाता है 

***
कविता झा 'काव्या कवि '







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2 Comments

Ravi Goyal

23-Sep-2021 10:48 PM

Waah bahut khoob 👌👌

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🤫

20-Sep-2021 11:27 PM

बेहतरीन....

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