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गीत(16-16)

गीत(16/16)
जब भी कविता लिखने......
जब भी कविता लिखने बैठूँ,
लिख उठता है नाम तुम्हारा।
इसी तरह नित  पहुँचा करता,
तुझ तक प्रिये प्रणाम हमारा।।
     लिख उठता है नाम तुम्हारा।।

अक्षर-अक्षर वास तुम्हारा,
घुली हुई हो तुम साँसों में।
रोम-रोम में रची-बसी तुम,
सदा ही रहती विश्वासों में।
जब डूबे मन भाव-सिंधु में-
मसि बनकर तुम बनी सहारा।।
    लिख उठता है नाम तुम्हारा।।

हवा बहे ले महक तुम्हारी,
कलियाँ खिलतीं वन-उपवन में।
तेरी ले सौगंध भ्रमर भी,
रहता रस पीता गुलशन में।
हाव-भाव सब हमें बताती-
बहती सरिता-चंचल धारा।।
    लिख उठता है नाम तुम्हारा।।

तेरा प्रेमी कवि-हृदयी है,
पंछी में भी तुमको पाता।
चंचल लोचन हर हिरनी का,
इसी लिए तो उसको भाता।
चंदा की शीतल किरणें भी-
भेद बतातीं तेरा सारा।।
     लिख उठता है नाम तुम्हारा।।

तुम्हीं छंद हो सुर-लय तुमहीं,
तुम्हीं हो कविता का आधार।
जहाँ लेखनी मेरी भटके,
तुम्हीं हो करती सदा सुधार।
संकेतों की भाषा तुमहीं-
भाव-सिंधु का प्रबल किनारा।।
     लिख उठता है नाम तुम्हारा।।
   
भाव-सिंधु में बनकर नौका,
पार कराती तुम सागर को।
कविता-मुक्ता मुझको देकर,
उजला करती रजनी-घर को।
तेरी छवि दे शब्द सलोने-
चमकें जैसे गगन-सितारा।।
     लिख उठता है नाम तुम्हारा।।
             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

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3 Comments

Varsha_Upadhyay

22-Feb-2023 06:50 PM

शानदार

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अदिति झा

22-Feb-2023 04:40 PM

Nice

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बहुत खूब

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