गीत(वृष्टि-अनावृष्टि)
गीत(वृष्टि-अनावृष्टि).
कहीं वृष्टि आधिक्य अवनि पर,
अनावृष्टि है कहीं-कहीं।
सुख-सागर है कहीं उमड़ता,
दुख-सरिता भी बहे कहीं।।
पर्वत हिम से ढके हुए हैं,
मरु-थल पूरे रेतीले।
हरियाली राजित समतल पर,
रहें कहीं ऊँचे टीले।
वन में जहाँ हिरण रहते हैं,
रहते हिंसक जंतु वहीं।।
दुख-सरिता भी बहे कहीं।।
छोटे-बड़े जंतु का मेला,
दुनिया अजब झमेला है।
कहीं भरा-पूरा है जीवन,
जीवन कहीं अकेला है।
चारो तरफ़ विविधता फैली,
एकरूपता कहीं नहीं।।
दुख-सरिता भी बहे कहीं।।
सूरज निकले सूरज डूबे,
अँधियारा उजियारा है।
धूप-छाँव का आना-जाना,
किसका कौन सहारा है?
ऊँच-नीच है नियति जगत की,
जो दिखता वह सही नहीं।।
दुख-सरिता भी बहे कहीं।।
संत-असंत जगत है डेरा,
सज्जन-दुर्जन फेरा है।
उचित और अनुचित हैं रहते,
उनका यही बसेरा है।
मानवता का केंद्र यही तो,
दानवता भी पले यहीं।।
दुख-सरिता भी बहे कहीं।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
पृथ्वी सिंह बेनीवाल
02-Mar-2023 06:14 AM
शानदार
Reply
अदिति झा
28-Feb-2023 08:50 PM
Nice 👍🏼
Reply
Renu
27-Feb-2023 11:15 PM
👍👍🌺
Reply