Vipin Bansal

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कविता = परदेश

⭐ कविता = ( परदेश ) 


कैसा ये परिवेश हुआ !
घर ही मेरा परदेश हुआ !!
एक ही छत के नीचे !
जैसे पूरा देश हुआ !!
घर के हैं जो घरवाले !
आज हुए वो बाहरवाले !!
बाहरवालों का घर में !
शुरू अब प्रवेश हुआ !!
कैसा ये परिवेश हुआ !
घर ही मेरा परदेश हुआ !!

घर होता था घरवालों से !
घर हुआ अब दीवारों से !!
सीमित अब दीवारों तक !
सबका अब प्यार हुआ !!
अपनी-अपनी दुनियाँ में !
हर कोई मशग़ूल हुआ !!
घर में जब खींची दीवारें !
अपना कोसों मील हुआ !!
कैसा ये परिवेश हुआ !
घर ही मेरा परदेश हुआ !!

दिलों में जब पड़ी दरारें !
दुश्मन भी क़रीब हुआ !!
दीवारों के कानों से !
घर खुली किताब हुआ !!
राजनीति का शुरू है दंगल !
इस घर में कभी था मंगल !!
मंगल में अब है दंगल !
घर अब संसद हॉल हुआ !!
कैसा ये परिवेश हुआ !
घर ही मेरा परदेश हुआ !!

उन रिश्तों में थी शक्कर !
घर जो कभी थे छप्पर !!
आज रग-रग में देखो !
नफ़रत का ज़हर हुआ !!
रंगमंच की दुनियाँ में !
रिश्ता भी किरदार हुआ !!
अभिनय की इस मंडी में !
रिश्ता अब बाज़ार हुआ !!
कैसा ये परिवेश हुआ !
घर ही मेरा परदेश हुआ !!

विपिन बंसल

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4 Comments

बहुत खूब

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Renu

27-Feb-2023 11:12 PM

👍👍🌺

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Muskan khan

27-Feb-2023 10:02 PM

👌👌

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