Natasha

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राजा की रानी

प्यारी ने कहा, “तुम ज्ञानी आदमी हो, तुम ही मेरी ठीक अवस्था को न जान सकोगे तो और जानेगा कौन? चलो, बच गयी।” इतना कहकर उसने एक दीर्घ श्वास दबाकर पूछा, “एकाएक आने का सच्चा कारण तो मैं जान ही न सकी कि क्या है?”

मैं बोला, “पहला कारण तो तुम नहीं सुन पाओगी, किन्तु दूसरा सुन सकती हो!”

“पहला क्यों नहीं सुन सकूँगी?”

“अनावश्यक है, इसलिए।”

“अच्छा, दूसरा ही सुनाओ।”

“मैं बर्मा जा रहा हूँ। शायद और फिर कभी मिलना न हो सके। कम से कम यह तो निश्चित है कि बहुत दिनों तक मिलाप न होगा। जाने के पहले एक दफे तुम्हें देखने आया हूँ।”

रतन कमरे में आकर बोला, “बाबू, आपके बिस्तर तैयार हैं, आइए।”

मैंने खुश होकर कहा, “चलो।” प्यारी से कहा, “मुझे बड़ी नींद आ रही है। घण्टे भर बाद यदि समय मिले तो एक दफे नीचे आ जाना- मुझे और भी बहुत-सी बातें करनी हैं।” इतना कहकर रतन को साथ लेकर मैं बाहर हो गया।

प्यारी के निज के सोने के कमरे में ले आकर रतन ने मुझे जब शय्या बताई तब मेरे अचरज की सीमा न रही। मैं बोला, “मेरे बिस्तर नीचे के कमरे में न करके यहाँ क्यों किये?”

रतन ने अचरज के साथ कहा, “नीचे के कमरे में?”

मैंने कहा, “ऐसी ही बात तो हुई थी।”

वह अवाक् होकर कुछ देर मेरी ओर देखता रहा और अन्त में बोला, “आपके बिस्तर होंगे नीचे के कमरे में? आप मजाक कर रहे हैं बाबू!” इतना कहकर वह हँसता हुआ जा ही रहा था कि मैंने उसे बुलाकर पूछा, “तुम्हारी मालकिन कहाँ सोवेंगी?”

रतन बोला, “बंकू बाबू के कमरे में उनके बिस्तर लगा आया हूँ।” मैंने निकट आकर देखा- यह राजलक्ष्मी के उस डेढ़ हाथ चौड़े तख्ते पर बिछाया हुआ बिस्तर नहीं है। एक पलंग पर एक खूब मोटा गद्दा बिछाकर शाही बिस्तर लगाए गये हैं। शीशे के नजदीक नजदीक एक छोटी-सी टेबल के ऊपर मेज के बीचोंबीच लैम्प जल रहा है। एक किनारे बंगला भाषा की किताबें हैं और दूसरे किनारे गुलदस्ते में कुछ बेला के फूल रक्खे हैं। ऑंखों से देखते ही मैंने अच्छी तरह जान लिया कि इनमें से कोई भी चीज नौकर के हाथ की तैयार की हुई नहीं हैं। जो बहुत प्यार करती है, ये सब चीजें उसी के हाथ की तैयार की हुई हैं। ऊपर की चादर भी राजलक्ष्मी खुद अपने हाथों बिछा गयी है, यह मानो अन्दर ही अन्दर मैंने खूब अनुभव किया।

आज उन लोगों के सामने अचानक आ जाने के सबब राजलक्ष्मी ने हतबुद्धि हो, पहले चाहे जैसा व्यवहार क्यों न किया हो, पर यह बात मुझसे अज्ञात नहीं रही कि मेरी निर्विकार उदासीनता से वह मन ही मन शंकित हो उठी थी और यह भी मुझे मालूम हो गया कि मेरे भीतर ईर्ष्या् का प्रकाश देखने के लिए उत्सुक हो वह इतनी देर से इतनी तरह से क्यों बार-बार आघात कर रही थी। किन्तु, सब कुछ जानते हुए भी, अपने निष्ठुर स्वभाव को ही मर्दानगी समझकर मैंने उसका जरा भी अभिमान नहीं रहने दिया- उसके प्रत्येक छोटे से छोटे आघात को सौ गुना करके वापिस लौटा दिया। उसके प्रति किया गया यह अन्याय मेरे मन के भीतर अब सुई की तरह चुभने लगा। मैं बिस्तर पर लेट गया किन्तु सो नहीं सका। मैं यह निश्चय जानता था कि एक बार वह आयेगी जरूर। इसलिए, उत्सुकता के साथ उस समय की राह देखने लगा।

थकावट के कारण शायद कुछ सो भी गया था, सहसा ऑंखें खोलकर देखा कि प्यारी मेरे शरीर पर एक हाथ रखे हुए बैठी है। मेरे उठकर बैठते ही वह बोली, “बर्मा को गया हुआ मनुष्य फिर लौटकर वापिस नहीं आता, यह बात क्या तुम्हें मालूम है?”

“नहीं, मुझे नहीं मालूम।”

“फिर?”

“मुझे लौटना ही होगा, ऐसी तो किसी के सिर की कसम मुझ पर है नहीं।”

बात बहुत ही सामान्य थी। किन्तु, संसार में यह एक भारी अचरज की बात है कि मनुष्य की दुर्बलता कब किस झरोखे से अपने आपको प्रकट कर बैठेगी, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। इसके पहले कितने ही और इससे भी अधिक बड़े कारण घट गये हैं, परन्तु, मैंने कभी अपने आपको इस तरह नहीं पकड़ा जाने दिया। किन्तु, आज उसके मुँह से निकली हुई इस अत्यन्त साधारण बात को भी मैं सहन नहीं कर सका। मुँह से सहसा यह बात निकल ही गयी, “सब लोगों के मन की बात तो जानता नहीं राजलक्ष्मी, परन्तु एक मनुष्य के मन की अवश्य जानता हूँ। यदि किसी दिन लौटकर आऊँगा तो केवल तुम्हारे ही लिए। तुम्हारे सिर की कसम मैं कभी अवहेलना नहीं करूँगा।”

प्यारी मेरे पैरों पर एकबारगी उलटी ही गिर पड़ी। मैंने इच्छा करके भी पैर पीछे न खींचे, परन्तु, दसेक मिनट बीत जाने पर भी जब उसने अपना सिर ऊपर नहीं उठाया तब उसके सिर पर मैंने अपना दाहिना हाथ रक्खा जिसके पड़ते ही वह एक बार सिहरकर काँप उठी। परन्तु फिर भी वह उसी तरह पड़ी रही। सिर भी नहीं उठाया, बोली भी नहीं। मैंने कहा, “उठकर बैठो, इस अवस्था में हमें कोई देखेगा तो भारी अचम्भे में पड़ जायेगा।”

किन्तु, प्यारी ने जवाब तक नहीं दिया तब मैंने उसे जोर से उठाया। उठाते ही मैंने देखा कि उसके नीरव ऑंसुओं से वहाँ की सारी चादर बिल्कुनल भीग गयी है। खींच-तान करने पर वह रुद्ध कण्ठ से बोल उठी, “पहले मेरी दो-तीन बातों का जवाब दो तब मैं उठूँगी।”

“कहो, कौन-सी बातें हैं।”

“पहले तो यह कहो कि उन लोगों के यहाँ रहने से तुमने मेरे सम्बन्ध में कोई बुरा खयाल तो नहीं किया?”

“नहीं।”

प्यारी और कुछ देर चुप रहकर बोली, “किन्तु, मैं भली औरत नहीं हूँ, यह तो तुम जानते हो? फिर भी, तुम्हें क्यों सन्देह नहीं हुआ?”

सवाल बड़ा ही कठिन था। वह भली स्त्री नहीं है, यह मैं जानता हूँ परन्तु वह खराब है, यह खयाल भी मैं मन में नहीं ला सका। मैं चुप हो रहा।

एकाएक वह अपनी ऑंखें पोंछकर झटपट उठ बैठी और बोली, “अच्छा, तुमसे पूछती हूँ; पुरुष कितना ही बुरा क्यों न हो, यदि वह भला होना चाहता है तो उसे कोई रोकता नहीं; किन्तु, हम लोगों की पारी आने पर सब मार्ग क्यों बन्द हो जाते हैं? अज्ञान से, धनाभाव से, एक दिन जो कर बैठी- चिरकाल के लिए मुझे वही क्यों करना पड़ता रहे? हम लोगों को तुम लोग क्यों भला बनने नहीं देते?”

मैंने कहा, “हम लोग तो कभी रोकते नहीं। और यदि हम रोकें, तो भी, संसार में भले बनने के मार्ग में कोई किसी को अटकाकर नहीं रख सकता।”

प्यारी बड़ी देर तक चुप रहकर मेरे मुँह की ओर देखकर अन्त में धीरे-धीरे बोली, “बहुत ठीक, तो फिर, तुम भी मुझे नहीं रोक सकोगे।”

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