गीत(भाव-सिंधु)
गीत(भाव-सिंधु)
भाव-सिंधु में डूब-डूब कर,
कविता-लेखन करता हूँ।
पानी को पानी मैं समझूँ,
क्षीर क्षीर को कहता हूँ।।
कविता रहती दूर सदा ही,
आडंबर की प्रचलन से।
करे उजागर सत्य सर्वदा,
अपने सीधे प्रवचन से।
निज कवित्व से खिन्न हृदय में,
ऊर्जा नित मैं भरता हूँ।।
क्षीर क्षीर को कहता हूँ।।
डगर गाँव की तजकर कविता,
जब आती है नगरों में।
हास्य-व्यंग्य का संपुट लेकर,
तब छपती है खबरों में।
कर धारण मैं इसी शस्त्र से,
भ्रष्ट-रोग को हरता हूँ।।
क्षीर क्षीर को कहता हूँ।।
सर-तड़ाग-वन-पर्वत-सरिता,
सागर का चित्रण करती।
कविता अपनी दूर दृष्टि से,
मधुर-तीक्ष्ण-मिश्रण करती।
झरनों जैसा मैं गिरि-शिख से,
शीतल जल सा बहता हूँ।।
क्षीर क्षीर को कहता हूँ।।
गहन अध्ययन करती कविता,
धर्म-कर्म के मर्मों का।
लोग-लोग में घृणा न पनपे,
अर्थ बताती धर्मों का।
भेद-भाव की सोच मिटा मैं,
निर्भय जग में रहता हूँ।।
क्षीर क्षीर को कहता हूँ।।
Renu
08-Mar-2023 09:56 PM
👍👍🌺
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डॉ. रामबली मिश्र
07-Mar-2023 11:31 PM
बहुत खूब
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