असल

असल!
हमारा व जगत का असल क्या है?हमारे व जगत के अंदर स्वतः है निरन्तर है।जो का मौन  मानसिक शांति,मानसिक अहिंसा में ही आभास पाना आसान है। उसको समर्पित होने का मतलब है जगत व जगत की घटनाओं के प्रति तटस्थ रहना, प्रतिक्रिया हीन रहना। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम आस्तिक हैं कि नास्तिक।महत्वपूर्ण ये है कि हम असल को,यथार्थ को महसूस करते हैं कि नहीं।

खुदा की याद में नमाज या इबादत के वक्त सब कुछ अर्थात दुनिया को भुला कर मौन में उतरने या एक विशेष धारणा में आना से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है हर वक्त - 24 घण्टे सर्वव्यापकता व असल की स्थिति में मन ही मन जीना,सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर की स्थिति में जीना, अपने व जगत के स्थूल, सूक्ष्म व कारण के योग के भाव में जीना।

बसुओं अर्थात ऋषि, नबियों आदि के बाद आचार्य महत्वपूर्ण हैं, अर्थात आचरण महत्व पूर्ण है। दुनिया में अनेक पंथ खड़े हो गए लेकिन हम ईश्वरीय सत्ता या असल के केन्द्रीयकरण व विकेन्द्रीयकरण को समझ में न ला सके।

योग(स्थूल, सूक्ष्म व कारण के योग) के लिए (योगांग) पहला कदम यम है, यम को किसी ने मृत्यु भी कहा है, आचार्य को किसी ने मृत्यु भी कहा है।इसी को किसी ने सन्यास व त्याग या वैराग्य कहा है। यम-सत्य ,अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य को किसी ने  महाव्रत कहा है। वैदिक शिक्षा में शान्त बैठने का भी अभ्यास काफी महत्वपूर्ण था।आचार्य व विद्यार्थी एक साथ मौन या शांत बैठने का अभ्यास करते थे।इसका हेतु यही था अपने व जगत के अंदर के असल को आभास में लाना।

हमारे लिए आज की तारीख में सबसे बड़ा भृष्टाचार है-शिक्षा।आज कल की शिक्षा ज्ञान के आधार पर चलने की प्रेरणा,मजहबी - जातीय से हट कर सहज व नैसर्गिक असल में रहने की शिक्षा का अभाव हो गया है।शिक्षित, विद्यार्थी, शिक्षक व शिक्षा कमेटीयों आदि समाज आदि के ठेकेदार ही असल से दूर है। वे जाति,मजहब, धर्म स्थल, जातीय मजहबी रीति रिवाज में ही उलझे दिखते हैं न कि सार्वभौमिक ज्ञान में।

ठीक ही कहा गया है, ऐसे में समाज व संस्थाओं में काम करना मुश्किल होता है।जब सब कुछ तमासी, जातीय, मजहबी, लोभ लालच, भौतिक मूल्यों आदि से ही सब ग्रस्त है।सिर्फ कर्म ही महत्वपूर्ण नहीं रह जाते, लोगों की नजर में बेहतर प्रदर्शन ही।महत्वपूर्ण नहीं रह जाता।महत्वपूर्ण तो नजरिया होता है। चरित्र समाज, संस्थाओं, जातिवादियों, मज़हबियों, भौतिक मूल्यों आदि।में जीने वालों की नजर में सिर्फ जीना नहीं है। कुदरत, खुदा, आत्मा की नजर में जीने का मतलब अलग है;समाज,संस्थाओं, ठेकेदारों ,भौतिकवादियों, लोभी लालचियों, मज़हबी जातियों आदि की नजर में जीना अलग बात है।

 जब मुंशी प्रेमचंद ने कहा कि सरकार तो निरर्थक होती है।समाज, कुदरत को तो सेवक,संरक्षक चाहिए।उन्होंने कुछ सोंच समझ कर ही कहा होगा।प्रकृति में विविधता होती है, अनेक स्तर व समझ व चेतना  के अनेक  बिंदु व स्तर होते हैं।तुलना असम्भव है। विकास तो हैवर्तमान स्तर व बिंदु से आगे बढ़ने का अवसर हर वक्त रहना।
#अशोकबिन्दु

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1 Comments

Aliya khan

19-Dec-2021 04:24 PM

बहतरीन

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