Natasha

Add To collaction

राजा की रानी

मुझे जमींदार समझकर यदि कोई मिलने आता तो मैं भीतर-ही-भीतर जैसे लज्जित होता था वैसे ही झुँझला भी उठता था। खासकर ये लोग ऐसी-ऐसी प्रार्थनाएँ और शिकायतें लाया करते हैं, और ऐसे-ऐसे बद्धमूल उत्पातों और अत्याचारों का प्रति‍कार चाहते हैं कि जिन पर हमारा कोई काबू ही नहीं चलता। यही कारण है कि इन महाशय पर भी मैं प्रसन्न न हो सका। मैंने कहा, “देर से आने के कारण आप दु:खित न हों; कारण, बिल्कुंल ही न आते तो भी मैं आपकी तरफ से कुछ खयाल न करता- ऐसा मेरा स्वभाव ही नहीं। मगर आपको जरूरत क्या है?”

ब्राह्मण ने लज्जित होकर कहा, “असमय में आकर शायद आपके काम में विघ्न पहुँचाया है, मैं फिर किसी दिन आऊँगा।” यह कहते हुए वे उठ खड़े हुए।

मैंने झुँझलाकर कहा, “मुझसे आपको काम क्या था, बताइए तो सही?”

मेरी नाराजगी को वे आसानी से ताड़ गये। जरा मौन रहकर शान्त भाव से बोले, “मैं मामूली आदमी हूँ, जरूरत भी मामूली-सी है। माँजी ने मुझे याद किया था, शायद उन्हें जरूरत हो- मुझे चाहिए तो कुछ नहीं।”

जवाब कठोर था, पर था सत्य। और मेरे प्रश्न के देखते हुए असंगत भी न था। पर यहाँ आने के बाद से ऐसा जवाब सुनाने वाला कोई आदमी ही नहीं मिला, इसी से ब्राह्मण के उत्तर से सिर्फ आश्चर्य ही नहीं हुआ बल्कि क्रोध भी आ गया। यों मेरा मिजाज रूखा नहीं है और कहीं होता तो शायद कुछ खयाल भी न करता; परन्तु ऐश्वर्य की क्षमता इतनी भद्दी चीज है कि दूसरे से उधार ली हुई होने पर भी उसके अपव्यवहार प्रलोभन को आदमी आसानी से नहीं टाल सकता। अतएव, अपेक्षाकृत बहुत ही ज्यादा रूढ़ उत्तर मेरी जबान पर आ गया, परन्तु उसकी तेजी निकलने के पहले ही देखा कि बगल का दरवाजा खुल गया है और राजलक्ष्मी अपना पूजा-पाठ अधूरा छोड़कर उठ आई है। वह दूसरे बड़े विनय के साथ प्रणाम करके बोली, “अभी से मत चले जाइए, बैठिए आप। आपसे मुझे अभी बहुत-सी बातें करनी हैं।”

ब्राह्मण ने पुन: आसन ग्रहण किया और कहा, “माँजी, आपने तो मेरे घर की बहुत दिनों की दुश्चिन्ता दूर कर दी, उससे तो हम लोगों की लगभग पन्द्रह दिन की गुजर चल जायेगी। पर अभी तो कोई समय नहीं है, व्रत-नियम-पर्व कुछ भी तो नहीं है। ब्राह्मणी आश्चर्य में आकर यही पूछ रही थी...”

राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, “आपकी ब्राह्मणी ने सिर्फ व्रत-नियमों के ही दिन-वार सीख रखे हैं, मगर पड़ोसियों की भेंट-सौगात लेने के दिन-वार का विचार वे अभी मुझसे सीख जाँय, कह दीजिएगा।”

ब्राह्मण ने कहा, “तो इतना बड़ा सीधा क्या...”

प्रश्न को वे खतम न कर सके, या फिर उन्होंने जान-बूझकर ही नहीं करना चाहा, परन्तु मैंने इस दाम्भिक ब्राह्मण के अनुक्त वाक्य का मर्म सम्पूर्ण रूप से हृदयंगम कर लिया। फिर भी भय हुआ कि कहीं मेरी ही तरह बिना समझे राजलक्ष्मी को भी कोई कड़ी बात न सुननी पड़े। इस आदमी का एक तरफ का परिचय अभी तक अज्ञात रहने पर भी दूसरी तरफ का परिचय पहले ही मिल चुका था, लिहाजा ऐसी इच्छा न हुई कि मेरे सामने फिर उसकी पुनरावृत्ति हो। साहस की बात सिर्फ इतनी ही थी कि राजलक्ष्मी को कभी कोई आमने-सामने निरुत्तर नहीं कर सकता था। ठीक हुआ भी यही। इस असुहावने प्रश्न से भी वह बाल-बाल बचकर साफ निकल गयी, बोली, “तर्कालंकार महाशय, सुना है आपकी ब्राह्मणी बहुत ही गुस्सैल हैं- बिना निमन्त्रण के पहुँच जाने से शायद खफा हो जाँयगी। नहीं तो मैं इस बात का जवाब उन्हें ही जाकर दे आती।”

   0
0 Comments