सर्वप्रथम माँ शारदे को नमन,
तत्पश्चात "लेखनी' मंच को नमन,
मंच के सभी श्रेष्ठ सुधि जनों को नमन,
कविता
विषय:- 🌹 स्वैच्छिक 🌹
शीर्षक -- 🙏 कुर्सी की लड़ाई 🙏
दिनांक -- २४.०३.२०२३
दिन -- शुक्रवार
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सतयुग नहीं ये कलियुग है, जरा बच के रहना भाई,
हर किसी को चाहिए कुर्सी, होती कुर्सी की लड़ाई।
झूठी शानो-शौकत दिखाकर, जनता को भरमाते,
अपना उल्लू सीधा करने को, लोगों को उल्लू बनाते।
नेता हो या अभिनेता, गुंडा मवाली या हो भाई,
हर किसी को चाहिए कुर्सी, होती कुर्सी की लड़ाई।
जब भी चुनाव आता है, जनता को जनार्दन मानते,
चुनाव में जीतते ही, फिर किसी को नहीं पहचानते।
येन केन प्रकारेण केवल, अपनी सत्ता ही हथियाई,
हर किसी को चाहिए कुर्सी, होती कुर्सी की लड़ाई।
साम दाम दण्ड भेद अपना, जीत जाते हैं हर शर्त में,
इनकी तिज़ोरी भरती रहे, देश चला जाये गर्त में।
लोकतंत्र मंदिर में होती तू तू मैं मैं, होती है हाथापाई,
हर किसी को चाहिए कुर्सी, होती कुर्सी की लड़ाई।
चाचा मामा नाना दादा, यहाँ तो रिश्तों का बाज़ार है,
स्वार्थ वशीभूत रिश्ते निभाते, रिश्ता बना व्यापार है।
चाहे किसी को फूफा बना लो, या बनाओ घर जमाई,
हर किसी को चाहिए कुर्सी, होती कुर्सी की लड़ाई।
माता पिता अपने बच्चों से, निस्वार्थ रिश्ते निभाते हैं,
बड़े होकर उनके ही बच्चे, उन्हें वृद्धाश्रम पहुँचाते हैं।
किसी को ज़ायदाद चाहिए, किसी को पूरी कमाई,
हर किसी को चाहिए कुर्सी, होती कुर्सी की लड़ाई।
सतयुग नहीं ये कलियुग है, जरा बच के रहना भाई,
हर किसी को चाहिए कुर्सी, होती कुर्सी की लड़ाई।
🙏🌷 मधुकर 🌷🙏
(अनिल प्रसाद सिन्हा 'मधुकर', जमशेदपुर, झारखण्ड)
(स्वरचित मौलिक रचना, सर्वाधिकार ©® सुरक्षित)
Abhinav ji
25-Mar-2023 07:42 AM
Very nice 👌
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Shashank मणि Yadava 'सनम'
25-Mar-2023 07:31 AM
बहुत ही सुंदर और यथार्थ चित्रण आज के परिवेश का
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Swati chourasia
25-Mar-2023 07:06 AM
वाह बहुत ही खूबसूरत व बेहतरीन रचना 👌👌
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