सफर यादों का
आज मंच पर लेखन का यात्रा वृतान्त विषय पर लिखने की सूचना को देखा तो खुद को लिखने से नहीं रोक पाई। पंहुँच गई बचपन के गलियारों में जहाँ न कोई चिंता न कोई फिक्र मासूम बचपन का मोहक सफर।
सफर के लिए न कोई खास तैयारी नहीं पर उत्साह आज से हज़ारों गुना ज्यादा।
न किसी हिल स्टेशन पर जाने की आरज़ू, न किसी ऐतिहासिक इमारत को देखने की तम्मना।'
सफ़र से मेरा एक भावनात्मक संबध रहा है। ट्रेन एक तरह से मेरा अजीज दोस्त है।
मैं ये इसलिए कह रही हूं कि मेरे पिताजी का घर रेलवे लाइन के किनारे ही था। हम भाई-बहन ट्रेन की आवाज सुनकर ही बड़े हुए। हम लोग रेलवे कॉलोनी में तो नहीं रहते थे लेकिन मेरे कॉलोनी के बहुत सारे लोग रेलवे एंपलाइज थे। सुबह-सुबह 7:00 बजे लोग तैयार होकर लोको शेड जाते थे ।लोकोशेड भी मेरे घर के थोड़ी ही दूर पर था और रेलवे लाइन पर चाय पकौड़े की कई दुकानें थी । लोग सुबह-सुबह घर से तैयार होकर निकलते और कुछ लोग रेलवे लाइन पर चाय पकौड़े खाकर फिर लोको शेड जाते थे। रेलवे स्टेशन भी मेरे घर के पास में ही है अभी भी हम लोग ट्रेन से गोरखपुर जाते हैं तो यदि हमारे पास सामान कम होता है (जो कि अक्सर नहीं होता है) वहां शॉर्टकट से पैदल पैदल 5 मिनट में ही अपने घर पहुंच जाते हैं ।
मेरे पिताजी भी रेल विभाग मे स्टेशन सुपरिटेंडेंट थे। उनका तबादला होता रहता था । मां हम लोग को लेकर गोरखपुर के पैतृक मकान में ही रहती थी । वे शनिवार को आते थे और सोमवार की सुबह फिर वापस ड्यूटी पर चले जाते थे । बचपन में हम लोग उनके साथ स्टेशन पर जाने की जिद किया करते थे। जब कभी हमारी स्कूल की छुट्टियां पड़़ती थी तब मां हमें लेकर पिताजी के पास जाया करती थी। लेकिन कभी-कभी पिताजी के स्टेशन के स्टाफ का एक गेटमैन था वो कभी कभी मेरे घर किसी काम के लिए आया करता था तो हम उसके साथ जिद करके पिताजी के पास चले जाया करते थे। वहां रेलवे स्टेशन पर भी जाकर वहां की गतिविधियों को देखा करते थे । छोटे स्टेशन पर पिताजी को भी को कभी-कभी टिकट भी काटना पड़ता था और कभी कभी ट्रेन को हरी झंडी, लाल झंडी भी दिखानी पड़ती थी। ये सब देखकर हम लोग खुश होते थे ।
गेट मैन के हाथ का बना खाना बहुत स्वादिष्ट लगता था। वहाँ की छोटी छोटी दुकान की चाय पकौड़े और भी ज्यादा स्वादिष्ट लगते थे।
विवाह के पहले तक मैंने बस की यात्रा नहीं की थी क्योंकि पिताजी को ट्रेन का फ्री पास मिलता था और जिससे हम लोग ट्रेन का ही सफर किया करते थे यद्यपि पिताजी को घूमने का बहुत ज्यादा शौक नहीं था अब मुझे लगताहै कि वह हर सप्ताह ट्रेन का सफ़र करते थे इसलिए उन्हें ट्रेन से घूमने मेंं रुचि नहीं होती होगी। लेकिन मां की जिद करने पर कभी-कभी वे हमें ट्रेन से दर्शनीय स्थलों पर ले जाया करते थे । नाना जी के घर भी हम भाई बहन रेल गाड़ी से ही जााते थे।
मेरे पति भी गवर्नमेंट एम्पलाई है । मैं ..... सरकारी मकान में रहती हूं कई बार मकान चेंज भी करने पड़ते हैं । इत्तेफाक से मेरा ये मकान भी रेलवे लाइन के बगल मे मिला है। मकान एलॉट होने पर जब हमें पता चला कि हमारा नया मकान रेलवे लाइन के किनारे है तो मेरे पति ने हंसते हुए कहा कि तुम्हें तो ट्रेन की आवाज से कोई प्रॉब्लम नहीं होगी क्योंकि तुम्हारा काफी साल रेलवे लाइन के किनारे ट्रेन की आवाजों से ही बीता है ।
सच है कि मुझे ट्रेन की आवाजों से कभी भी डिस्टर्बेंस नहीं हुआ।
आज कार से फ्लाइट से भी कभी कभी सफ़र करती हूं किन्तु जो मज़ा बचपन में गेट मैन के साथ भागकर कुसम्ही स्टेशन पर जाने में आता था वो बात अब कहाँ।
मन में आता है काश मेरा बचपन वापस आ जाता और मैं पिताजी को पुनः रेलवे स्टेशन पर टिकट काटते देख पाती।
मैं अपनी ये रचना मेरे स्वर्गीय पिताजी को समर्पित करती हूँ.....।।।
स्नेहलता पाण्डेय"स्नेह"
नईदिल्ली
Niraj Pandey
11-Oct-2021 07:29 PM
वाह बहुत ही बेहतरीन
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Miss Lipsa
01-Oct-2021 06:08 PM
Wow
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Seema Priyadarshini sahay
30-Sep-2021 11:39 AM
बहुत सुंदर संस्मरण
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