न्यायाधीश
सभी मात्र देखने के लिए आया करते थे और फिर अल्-सुबह कमाण्डेंट महिलाओं के साथ आते थेऋ तुरहियों से पूरी कालोनी ही जाग जाया करती थी। फिर मैं जाकर उन्हें पूरी रिपोर्ट दिया करता था कि सभी तैयारियाँ पूरी की जा चुकी हैं,
उन दिनों एक भी उच्चाधिकारी अनुपस्थित रहने की हिम्मत नहीं कर सकता था- ये सभी कुर्सियाँ मशीन के चारों ओर विधिवत् जमाई जाती थीं, ये बेंत की कुर्सियों का ढेर उस युग के खण्डहर की तरह आज पड़ी हैं, यह जमाना आया है अब। उन दिनों मशीन की अच्छी तरह सफाई की जाती थी ऐसी कि सदैव चमकती रहती थी। प्रत्येक सज़ा के बाद मै।
नए पुर्जे मँगा लिया करता था। चारों ओर दर्शक पंजों के बल उन ढालों पर बैठ देखा करते थे और उधर बड़ी संख्या में लोग ऊपर खड़े हो देखते थे- सजायाफ्ता को स्वयं कमाण्डेंट ही हैरो पर लिटाया करते थे। और आज जो काम एक साधारण सैनिक कर रहा है, उन दिनों में मेरी जिम्मेदारी हुआ करती थी।
वह पीठासीन न्यायाधीश का कर्त्त्ाव्य था और मेरे लिए सम्मान की बात थी और तब जाकर सजा प्रारम्भ होती थी। उन दिनों मशीन की एक भी बेसुरी आवाज़ नहीं निकला करती थी। यह सच है कि अधिकांश लोग सजा को आँखों से देखना पसन्द नहीं करते थे और वे धरती पर आँखें गड़ाए या आँखें बन्द किए रहते थे- सभी को पता होता था कि अब न्याय होने वाला है।
चारों तरफ फैली पसरी खामोशी में केवल सुनाई पड़ा करती थी सजायाफ्ता के फेल्ट से बन्द मुँह से निकली आधी-अधूरी चीखें और आहें। आज तो हालत यह है कि फेल्ट रखे मुँह से कहीं बड़ी चीखें मशीन से निकलने लगी हैं। उन दिनों तो लिखने वाली सुई के साथ एक एसिड भी छोड़ी जाती थी, जिसके उपयोग की फिलहाल हमें अनुमति ही नहीं ।
बहरहाल फिर आया करता था छठवां घण्टा। उन दिनों पास से देखने की अच्छा व्यक्त करने वाले सभी आवेदकों को अनुमति देना ही सम्भव नहीं हुआ करता था। क्या दिन थे वे! उन दिनों कमाण्डेंट ने अपने विवेक से बच्चों को प्राथमिकता देने का आदेश निकाला हुआ था। जहाँ तक मेरा प्रश्न था अपने अधिकारों के चलते मुझे वह सुविधा प्राप्त थी कि मैं सदैव मशीन के पास ही रहा करता था।
प्रायः मैं किसी बच्चे को अपने हाथों से पकड़े जांघों पर बैठाए रहता था। उन दिनों हम सभी सजायाफ्ता की पीड़ा की मात्रा से क्षण-क्षण बदलते चेहरे को देखने में मग्न रहे आते थे, कैसे हमारे चेहरे न्याय की कांति से चमका करते थे- सजा के अन्त होने पर और फिर क्रमशः धुंधली होती जाती थी!
क्या दिन थे वे प्यारे कामरेड!” स्वाभाविक था ऑफिसर अपनी रौ में यह भूल ही चुका था कि वह किससे बात कर रहा है। उसने अन्वेषक को बाँहों में भर लिया था और अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया था। उसकी इस हरकत से अन्वेषक को शर्म आ रही थी,
उत्सुकता के साथ ऑफिसर के सिर के ऊपर से देखने लगा। सैनिक ने सफाई पूरी कर ली थी और फिलहाल एक बर्तन में राइस पेप (चावल पानी) को बेसिन में डाल रहा था। जैसे ही सजायाफ्ता ने, जिसे पर्याप्त होश आ गया था- सैनिक को यह करते देखा वो अपनी जीभ इस ओर बढ़ाने की कोशिश करने लगा।
सैनिक उसे धकिया कर दूर रखने की कोशिश करने लगा क्योंकि राइस-पेप बाद के घण्टे के लिए तैयार किया गया था, हालाँकि यह भी उचित तो नहीं माना जा सकता कि सैनिक अपने गन्दे हाथों को बेसिन में डालकर खाए, और वह भी एक भूखे चेहरे के सामने।