गीत(साधक)
साधन में साधक रत रहता,
दुष्ट दुष्टता करता है।
परित्याग कर भौतिक सुख का,
मन सुकर्म में रमता है।।
भरा त्याग से जो है मानव,
श्रेष्ठ वही मानव जग में।
छिपी रहे सुंदरता सारी,
केवल अंगूठी-नग में।
त्यागी पुरुष संत सम होता,
स्नेह सभी सँग रखता है।।
मन सुकर्म में रमता है।।
पाप-कर्म से भय हो मन में,
भय हो सदा बुराई से।
जीवों के प्रति रखो प्रेम भी,
सेवा-भाव, भलाई से।
पुरुष वही जग पूजनीय है,।
जो उदार मन रहता है।।
मन सुकर्म में रमता है।।
मानवता का धर्म निभाना,
सबके वश की बात नहीं।
दें भूखे को अपना भोजन,
साधारण सौगात नहीं।
जिस पर रहती कृपा नाथ की,
उसको अवसर मिलता है।।
मन सुकर्म में रमता है।।
लेखक-साधक-चिंतक मिलकर,
सबने विश्व सवाँरा है।
जब-जब ह्रास हुआ मूल्यों का,
कलमों ने ललकारा है।
नई सोच को कलमकार ही,
जन-मानस में भरता है।।
परित्याग कर भौतिक सुख का,
मन सुकर्म में रमता है।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
ऋषभ दिव्येन्द्र
10-May-2023 05:19 PM
लाजवाब
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