चोटी की पकड़–64
तानपूरा स्वर भरने लगा। एजाज के गले से मिलाया हुआ।
राजा साहब ने कहा, "आपके स्वर में नहीं मिला। दिक्कत हो तो अभी ठहर जाइए।"
एजाज कुछ और दबी। प्रभाकर ने कहा, "चल जाएगा। घटा लूँगा।"
"अच्छा, मैं ही बिसमिल्लाह करती हूँ।" एजाज मसनद के बीच में आ गई। दिल को चोट लग चुकी।
पूरा-पूरा व्यवसायवाला रुख लेकर बैठी। साजिंदे खुश होकर अनुपम रूप देखने लगे। प्रभाकर ने भी देखा, जैसे पत्थर को देख रहा हो।
एजाज की हार्दिक सहानुभूति उस क्षण कलाकार प्रभाकर के लिए हुई। भरकर, राजा साहब से बदली हुई, एजाज ने अलाप ली।
प्रभाकर मुग्ध हो गया। चुपचाप बैठा खयाल सुनता रहा। तानों की तरहें दिल में समा गईं। साजिंदे काम करते हुए प्रभाकर को देख लेते थे। राजा साहब निर्भीक कद्रदाँ की तरह बैठे रहे।
खयाल गाकर एजाज हट गई। इसका मतलब था, अब नहीं गाएगी । राजा साहब समझकर खामोश रहे। साजिंदे उसको कुछ कह नहीं सकते थे। प्रभाकर आगंतुक।
एजाज पहले की तरह राजा साहब की बग़ल में नहीं बैठी। गाने के लिए प्रभाकर का जी उठ नहीं रहा था। फिर भी रस्म पूरी करनी थी। शिक्षित घराने का शिक्षित युवक सुकण्ठ और संगीतज्ञ था। ढर्रा छोड़कर उसने धमार गाया। काफी जमी। राजा साहब उछल पड़े।
एजाज समझ गई, यह पेशेदार गवैया नहीं। इसका राज लेना चाहिए, दिल में बांधा। डटी बैठी रही। कलकत्तेवाली, सरकार के आदमी से हुई, बातचीत याद आई। धीरज हुआ। पर राजा की तरफ से सदा के लिए पेट में पानी पड़ गया।
राजा साहब ने देखा, प्रभाकर की तारीफ़ से एजाज का दिल छोटा नहीं पड़ा। वह और बढ़कर बोले, "अभी आप थके-माँदे आए हैं।"
"अच्छा, कहाँ से?" एजाज ने पूछा।
"क्यों, साहब?" राजा साहब ने प्रभाकर को देखा।
वर्धमान से।" प्रभाकर ने कहा।
"जनाब का नाम?" एजाज ने पूछा।
"प्रभाकर।"
"उस्ताद हैं?"
प्रभाकर ने साधारण नमस्कार किया।
अरे भाई, बोस साहब बैरिस्टर हैं, उनके भाई हैं। आए हैं।"
एजाज और दूर तक गाँठ गई, "कुछ रोज रहेंगे, यानी बहुत कुछ सुनने को मिलेगा। राजा साहब का दरबार है।" खिलखिलाकर हँसी।
आज के बर्ताव से एजाज को इच्छा हुई, दूसरे दिन कलकत्ता रवाना हो जाए और नौकरी छोड़ दे, मगर बड़ा रहस्यमय रूप सामने देखा, जिसको खानदानी पढ़ी-लिखी वेश्या छोड़कर न भगेगी; आखिरी दम तक सुलझायेगी।
सत्रह