दो बहनें
ऊर्मि को इस सहायता की ज़रूरत थी, क्योंकि इधर उसके मन में बीच-बीच में आशंका होने लगी थी। सोचा करती; 'शायद पहले के उत्साह की झोंक में मैं ग़लती कर बैठी हूँ। शायद डाक्टरी मेरे अनुकूल नहीं पड़ेगी।'
नीरद को निशान लगाई हुई किताबें उसके लिये कठोर बन्धन का काम करेंगी, उसे धारा के विरुद्ध खींच ले चलेंगी। नीरद के चले जाने के बाद ऊर्मि अपने ऊपर और भी कठिन अत्याचार करने लगी। कालेज जाती, और बाक़ी समय अपने को मानों ज़नानख़ाने में बन्द करके रखती। दिन भर के बाद घर लौटती। लौटने पर उसका थका हुआ मन जितना ही छुट्टी पाना चाहता, उतनी ही निठुरता के साथ उसे अध्ययन की ज़ंजीरों में बाँधकर रोक रखती। पढ़ाई अग्रसर नहीं होती, एफ ही पन्ने पर मन बारंबार व्यर्थ ही चक्कर काटता रहता, तो भी यह हार नहीं मानना चाहती। नीरद मौजूद नहीं है इसीलिये उसकी दूरवर्ती इच्छाशक्ति उसपर अधिक प्रभाव डालने लगती है।
जब काम करते-करते पहले की बातें बार-बार मन में चक्कर काटने लगतीं तो वह अपने को सबसे अधिक धिक्कार देती। युवकों में उसके अनेक भक्त थे। उन दिनों उसने किसी की उपेक्षा भी की है और किसी के प्रति मन आकर्षित भी हुआ है। प्रेम परिणत नहीं हुआ लेकिन प्रेम की इच्छा उस समय मृदु-मन्द वासन्ती वायु के समान मन में घूमती रही है। इसीलिये वह अपने मन में गुनगुनाकर गान करती। अच्छी लगनेवाली कविताओं की नक़ल कर लेती। जब मन अत्यन्त उतावला हो जाता तब सितार बजाने लगती। आजकल किसी-किसी दिन सायंकाल जब आँखें किताब से उलझी रहती हैं, वह अचानक चौंक उठती है और ऐसा मालूम होता है कि उसके मन में पुराने दिनों के किसी ऐसे मनुष्य का चित्र घूम रहा है जिसे उसने कभी विशेष प्रश्रय नहीं दिया। यहाँ तक कि उस आदमी का अविश्राम आग्रह उन दिनों उसे नाराज़ किया करता। आज शायद उसका वही आग्रह ऊर्मि को भीतरी अतृप्ति को वेदना को उसी प्रकार स्पर्श कर रहा है, जिस प्रकार तितली के क्षणिक हल्के पङ्ख फूल को वसन्त का स्पर्श दे जाते हैं।
इन विचारों को वह जितने ही वेग से मन से दूर करना चाहती, उतनी ही तेज़ी से उस वेग का प्रतिघात भी उसके मन में उन्हीं विचारों को ठेल देता। डेस्क पर नीरद का एक फोटोग्राफ रखा है। उसकी ओर एक-टक देखता रहती। उस मुख में बुद्धि की दीप्ति तो है परन्तु आग्रह का कोई चिह्न नहीं। वह उसे पुकारता ही नहीं, तो फिर उसके प्राण जवाब दें तो किसे दें? मन ही मन सिर्फ़ यही जप किया करती, 'कैसी प्रतिभा है, कैसी तपस्या है, कैसा निर्मल चरित्र है, कैसा अचिंतनीय मेरा सौभाग्य है!'