चोटी की पकड़–90

हम एक-दूसरे को फाँसना भी चाहते हैं। खजांची सरकार की मदद लेगा।


"पहले हमको भेद बतला दिया होता?"

"तो न उधर का फँसना होता, न इधर का।"

"अब तो सारा संसार फँस गया।"

"नहीं तो मतलब नहीं गठ रहा था।"

"रुपए रानीजी के पास नहीं, यह टेढ़ा है।"

"टेढ़ा हो, सीधा, बचत न थी अगर तुम बीजक रख लेते।"

"कहो, बचत के लिए दे दिया।"

"नहीं, मर्दानगी के लिए।"

सत्ताईस

मुन्ना बुआ के पास गई। बुलाकर बाग़ ले गई। सूरज नहीं डूबा। पेड़ों पर सुनहली किरणों का राज है। तेज हवा बह रही है। बुआ का शानदार आँचल उड़ रहा है। 

मुन्ना सिपाही या फौजी हिंदुस्तानी औरत की तरह दोनों खूँट कमर में खोंसे हुए है। अनानास के झाड़ की बगल में मौलसिरी का बड़ा पेड़ है, तने के चारों ओर कमर-भर ऊँचा पक्का गोल चबूतरा बँधा हुआ है।

 दायीं ओर कुछ दूर तालाब, पीछे और बायीं ओर ऊँची चारदीवार, सामने कोठी; वही जगह जहाँ प्रभाकर रहता है। 

मुन्ना देर तक बैठी हुई बरामदे पर आँख गड़ाए हुए बुआ को फूल-पत्तियों की बातचीत में बहलाए रही। प्रभाकर के बरामदे पर एक चिड़िया न दिखी। बुआ से उसने कहा, "कैसा समय है?"

"बहुत अच्छा।"

"क्या चाहता है जी?"

"बहुत कुछ।"

"सबसे पहले क्या?"

"हमको लाज लगती है। हमरा जी कुछ नहीं चाहता। जब भाग फूट गया, तब चाह कैसा?"

"यह तो हमारे लिए भी है। लेकिन न जाने क्यों, चाहना पड़ा, भाग को जगाना पड़ा।"

बुआ का ब्राह्राणत्व ज़ोर मारने को था, मगर सँभल गईं। कहा, "जैसा कहा जाता है, वैसा करती ही हूँ।"

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