चोटी की पकड़–113
"उसको देखा होगा?"
"जी, हाँ।"
रानीजी को एक धक्का लगा। सँभालने लगीं। कहा, "हम मँज गए हैं। उससे भी मिले?"
"जी, हाँ, मिले।"
रानी साहिबा झेंपी। कहा, "बाजार का अच्छा माल है। राजा साहब खरीदेंगे तो अच्छा देखकर।"
प्रभाकर खामोश रहे। जब्त करते रहे। कहा, "आदमी की पहचान मुश्किल है।"
"हाँ।" रानी साहिबा ने कहा, "हमने देखा है, कलकत्ते में, मगर फूटी आँख। तारीफ थी। उससे क्या काम?"
"तरफदार बनाना।"
"आप दमदार हैं। गला बतलाता है। पहले किसी से बातचीत ऐसी ही मिल्लतवाली रहेगी, फिर, दिल में जम गया तो फायदे की सोची।"
शराफ़त-भरे बड़प्पन से प्रभाकर सिर झुकाये रहे। हल्का मजाक किया, "राजा साहब को चाहिए था, पहले आपसे मिलाते।"
"हम खुद मिल लिए। राजा साहब का कुसूर हट गया।"
"जी।"
रानी साहिबा ने पूछा, "आप सिगरेट-पान शौक फ़रमाते हैं?"
"पान खा लूँगा।"
मुन्ना एक बग़ल खड़ी थी। रानी साहिबा ने देखा, वह गिलौरीवाली तश्तरी उठा लायी। प्रभाकर के सामने मेज पर रख दी। प्रभाकर ने पान खाए। मुन्ना हटकर अपनी जगह खड़ी हो गई।
"आप कब तक कलकत्ता रवाना होंगे?" रानी साहिबा ने पूछा।
"दो ही दिन में, अभी समय का निश्चय, नहीं किया। ज़रूरी काम है।"
"कैसा काम आपके सिपुर्द है, क्या आप बतलाएँगे?"
"अभी नहीं। काम आपके फायदे का है।"
"आपकी हम क्या मदद कर सकते हैं?"
"सहयोग।"