सब जगह हताश होकर भी कुमार दिल से दृढ़ रहा। यूरोप जाते वक्त भी उसे समाज का सामना करना पड़ा था।
लौटकर और करना पड़ेगा, यह पहले से निश्चय कर चुका था। इसलिए, हेच जरा भी नहीं खाई; एक तरंग उठी और दिल-बहलाव की स्वाभाविक प्रेरणा से गुनगुनाने लगा।
गुनगुनाते-गुनगुनाते भावना पैदा हुई, गाने लगा। रात के साढ़े नौ का समय होगा। गाना समाप्त हुआ कि सामने के सुंदर मकान से हारमोनियम का स्वर गूंजता हुआ सुन पड़ा
, फिर किशोरी-कंठ का ललित संगीत। तरुणी भाव के मधुर आवेश में गा रही थी-'तोमारे करियाछि जीवनेर ध्रुवतारा।' कुमार का हौसला अभी पूरा न हुआ था, पुनः संगीत का श्रीगणेश उसी ने किया था, इसलिए वह भी गाने लगा।
पर गाता क्या, भाव के आवेश में शब्दों का ध्यान ही जाता रहा। जब एक जगह रागिनी गाई जा रही हो, तब दूसरी रागिनी गाना असंभव भी है, दुःखप्रद भी।
भाव के आवेश में कंठ उन्हीं-उन्हीं पदों पर फिरने लगा। एक ही पद के बाद हारमोनियम बंद हो गया। पर कुमार की गलेबाजी चलती रही।
हारमोनियम क्यों बंद हो गया, इस तरफ ध्यान देने की उसे फुर्सत भी नहीं हुई। उसकी तान-मुरकी समाप्त हुई, उधर ग्रामोफोन में किसी बंगाली महिला का काफी ऊँचे स्वरों में, जहाँ उसके पुरुष-कंठ की पहुँच नहीं हो सकती, टैगोर-स्कूल का गाना होने लगा।
यह चाल और चालाकी कुमार समझ गया। साथ-साथ यह भी उसके खयाल में आया कि इस स्वर से गला मिलाकर गाने की उसे चुनौती दी गई है।
उसने गला एक सप्तक घटा दिया। इससे उसे सहूलियत हुई। वह इतने ही स्वरों पर गाता था। टैगोर-स्कूल का ढंग भी उसे मालूम था। तमाम किशोरावस्था बंगाल में बीती थी।
गाने लगा, बल्कि कहना चाहिए, अगर कंठ के कामिनीत्व को छोड़कर कमनीयत्व की ओर जाया जाए तो कुमार ने ही बाजी मारी।
एकाएक गाने के मध्य में रेकॉर्ड बंद हो गया। गाड़ीवाले बरामदे की छत पर एक तरुणी आकर रेलिंग पकड़कर खड़ी हो गई।
होटल की ओर देखा। कई चारपाइयाँ पड़ी थीं। कुमार का गाना बंद हो चुका था। वह तकिए पर सिर रखे एक भले आदमी की तरह उसी ओर देख रहा था।
तरुणी निश्चय न कर सकी कि उसे चिढ़ानेवाला किस चारपाई पर पड़ा है। एक बार देख कर 'छूँचो-गोरू-गाधा' [1] कहकर तेजी से फिरकर चली गई। कुमार समझकर निर्विकार चित्त से करवट बदलकर- 'भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढ़मते' - गाने लगा।