गाने के भीतर गाली की ध्वनि- 'छूँचो-गोरू-गाधा' बार-बार गूँजती हुई सुन पड़ने लगी। कुमार ने गाना बंद कर दिया।
विचार करने लगा। सोचकर हँस पड़ा। गाली की तरफ ध्यान न गया, क्योंकि गाली के साथ-साथ उसकी वजह भी सामने आई।
जहाँ गाली की कठोरता की तरह उसकी वजह मुलायम हो, वहाँ कोई मूर्ख गाली की तरफ ध्यान देगा! वह मूर्ख नहीं। कोरे 'छूँचो, गोरू, गाधा' में क्या रखा है-न इनमें से वह कुछ है।
वह उस भाव को सोच रहा है जो गाली देते वक्त जाहिर हुआ था, जिसमें गाली सुनाने की स्पर्धा को शालीनता से दबा रखने की शक्ति भी साथ-साथ प्रकट हुई थी,
जहाँ भय था कि जिसे सुनाती हूँ उसके सिवा दूसरा तो न सुन लेगा, जिसमें पाप के विरोध में खड़ी होने की सरल पुण्य प्रतिभा थी, भले ही वह पाप दूसरों के विचार में पाप न हो।
युवती के मनोभावों की सुखस्पर्श उधेड़-बुन में कुमार को बड़ी देर हो गई। रात काफी बीत चुकी, पर न पी हुई उस मधु को एक बार पीकर बार-बार पीने की प्यास बढ़ती गई।
आँखें न लगीं, उन विरोधी भावों में प्राणों के पास तक पहुँचने वाली इतनी शक्ति थी कि वह स्वयं उसको धीरे-धीरे प्राणों को आवृत्त करने वाली कोमलता से मिलता हुआ परास्त हो गया।
जब आँखें लगी, तब वह जैसे उसकी पूर्ण पराजय की ही सूचना हो। तब तक रात के दो-तीन का समय हो चुका होगा। नींद जैसे युवती के पढ़े जादू का नशा हो।
कुमार की आँखें खुलीं जब सूरज निकल आया था, मुँह पर धूप पड़ रही थी। पास के और-और सोनेवाले उठकर चले गए थे।
भ्रमण समाप्त कर लौट चुके थे, कुछ देर से जाने वाले लौट रहे थे। रास्ते पर काम से चले लोगों की काफी भीड़ हो रही थी।
जगने के साथ ही जिस तरफ को मुँह था, आँखें सीधे उसी तरफ आप-ही-आप गईं। जिस कल्पना को लेकर वह सोया था,
जगने के साथ ही अपनी मूर्तिमत्ता में लीन न होने के लिए उसी तरफ वह चली। सामने टेलिग्राफ के पोस्ट को बाँधने वाले एक तार पर उसी मकान के भीतर से मधु-माधवी की एक लता ऊपर तक चढ़ी हुई प्रभात के वायु से हिल-हिलकर फूलों में हँस रही थी।
उसी की फूली दो शाखाओं के अर्द्धवृत्त के भीतर से देखती हुई दो आँखें कुमार की आँखों से एक हो गईं-उसकी कल्पना जैसे सजीव, परिपूर्ण आकृति प्राप्त कर सामने खड़ी हो।
इस खड़े होने के भाव में भी रात का वही भाव स्पष्ट था। सारी देह लता की आड़ में छिपी हुई, मुख लता के दो भुजों के बीच, जैसे छिपने का पूरा ध्यान रखकर खड़ी हुई हो!
बरामदे पर सुबह-शाम रोज वह वायु-सेवन के लिए, बाहरी दृश्य देखने की इच्छा से निकलती थी, जरूरत पर यों भी आती थी।
कल जिसे गाली दी, मुमकिन आज देख लेने के लिए आई हो! पहचान थी नहीं, सोते कुमार को देखा हो, आँखों को अच्छा लगा हो, इसलिए छिपकर देखने लगी हो!