निरुपमा–4

कोई भी कुमार को सुंदर कहेगा। उसके सोते समय युवती किस भाव से, किस दृष्टि से देख रही थी, नहीं मालूम। 


पर उसके सोने पर भी उसके ललाट, चिबुक, नाक और मुँदी आयत आँखें विद्या के परिचय से प्रदीप्त रहती है।

 लंबे बाल कानों को ढककर कपोलों तक आ जाते हैं। गोरे चेहरे पर केवल साबुन से धुले सुनहरे बाल किसी मनुष्य को एक बार देखने के लिए खींच लेंगे, मुख और बालों की ऐसी मैत्री है।

कुमार के देखते ही युवती लजा गई। उसी की प्रकृति ने उसकी चोरी की गवाही दी।

 आँखें झुक गईं, होंठों पर पकड़ में आने की सलज्ज मुस्कुराहट फैल गई। सामने मधु-माधवी की लता हवा में हिलने लगी। पीछे सूर्य अपने ज्योतिमंडल में मुख को लेकर स्पष्टतर करता हुआ चमकता रहा।

 युवती छिपने के लिए पहले से तैयार थी, पर छिप न सकी। 

कुमार अपनी कल्पना को सुंदर प्रकृति के प्रकाश में घिरी, प्रत्यक्ष सजीव अपार रूप-राशि के भीतर सलज्ज सहानुभूति देती हुई देर तक देखता रहा, जैसे कल गाली देने के कारण आज वह मूर्तिमती क्षमाप्रार्थना बन रही हो! जैसे कल के भीतरवाले भाव आज व्यक्तरूप धारण कर रहे हों!

सुंदर को सभी आँखें देखती हैं। अपनी वस्तु को अपना सर्वस्व दे देती हैं। क्यों देखती हैं, क्यों दे देती हैं, इसका वही कारण है जो जलाशय की और जल के बहाव का। 

रूप ही दर्शन की सार्थकता है। यहाँ एक रूप ने दूसरे रूप को-आँखों ने सर्वस्व-सुंदर आँखों को चुपचाप क्या दिया, हृदय ने चुपचाप दोनों ओर से क्या समझा-मौन के इतने बड़े महत्त्व को पुखरा भाषा कैसे व्यक्त कर सकती है!

दोनों देख रहे थे, उसी समय एक बालिका आई। 


बहन के सामने खड़ी होकर रेलिंग पकड़े हुए पंजों के बल उठकर अजाने मनुष्य को एक बार देखा, फिर दीदी को देखकर दौड़ती हुई चली गई।

पकड़ में आकर हटते हुए युवती के पैर नहीं उठ रहे थे। वह रेलिंग पकड़े हुए मुँह फेरकर दूसरी ओर देखने लगी-होंठों में मुस्कुरा रही थी। कुमार उठकर कमरे के भीतर चला गया।


दो

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