राजर्षि
महाराज ने महल लौट कर नियमित राज-काज निबटाया। प्रात:कालीन सूर्यालोक ढक गया है। मेघों की छाया से दिन में ही अंधकार घिर आया है। महाराज अत्यंत अनमने हैं। और दिन नक्षत्रराय राजसभा में उपस्थित रहता है, आज नहीं था। राजा ने उसे बुलावा भेजा, उसने बहाना बना कर कहलवा दिया, उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। राजा स्वयं नक्षत्रराय के कक्ष में जा पहुँचे। नक्षत्रराय मुँह उठा कर राजा के चेहरे की ओर नहीं देख सका। एक लिखा हुआ कागज लेकर दिखाया कि काम में व्यस्त है। राजा बोले, "नक्षत्र, तुम्हें क्या बीमारी हुई है?"
नक्षत्रराय ने कागज को इधर से, उधर से उलट-पलट कर उँगलियों का निरीक्षण करते हुए कहा, "बीमारी? नहीं, ठीक-ठीक बीमारी नहीं - यही जरा-सा काम था - हाँ हाँ, बीमार हो गया था - थोड़ा बीमारी की तरह ही कह सकते हैं।"
नक्षत्रराय बहुत अधिक हडबडा उठा, गोविन्दमाणिक्य अत्यधिक दुखी चेहरे से नक्षत्रराय के चेहरे की ओर देखते रहे। वे सोचने लगे - 'हाय हाय, स्नेह के नीड़ में भी हिंसा घुस गई है, वह साँप की तरह छिपना चाहती है, मुँह दिखाना नहीं चाहती। क्या हमारे जंगल में हिंस्र पशु काफी नहीं हैं, अंत में क्या मनुष्य को भी मनुष्य से डरना होगा, भाई भी भाई के निकट जाकर संशयहीन मन से नहीं बैठ पाएगा! इस संसार में हिंसा-लोभ ही इतना बड़ा हो गया, और स्नेह-प्रेम को कहीं भी ठौर नहीं मिला! यही मेरा भाई है, इसके साथ प्रति दिन एक ही घर में रहता हूँ, एक आसन पर बैठता हूँ, हँस कर बातें करता हूँ - यह भी मेरे पास बैठ कर मन में छुरी सान पर चढाता रहता है!' तब गोविन्दमाणिक्य को संसार हिंस्र जंतुओं से भरे अरण्य के समान लगने लगा। घने अंधकार में चारों ओर केवल दाँतों और नाखूनों की छटा दिखाई देने लगी। दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए महाराज ने सोचा, 'इस स्नेह-प्रेमहीन, मारकाट भरे राज्य में जीवित रह कर मैं अपनी स्वजाति के, अपने भाइयों के मन में केवल हिंसा लोभ और द्वेष की अग्नि प्रज्वलित कर रहा हूँ - मेरे सिंहासन के चारों ओर मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय संबंधी मेरी ओर देख कर मन-ही-मन मुँह टेढ़ा कर रहे हैं, दाँत घिस रहे हैं, पंक्तिबद्ध भयानक कुत्तों के समान चारों ओर से मुझ पर टूट पडने का अवसर खोज रहे हैं। इसकी अपेक्षा इनके तीक्ष्ण नाखूनों के आघात से छिन्न-विच्छिन्न होकर, इनके रक्त की प्यास बुझा कर यहाँ से दूर चले जाना ही अच्छा है।'
प्रभात के आकाश में गोविन्दमाणिक्य ने जो प्रेम-मुख-छवि देखी थी, वह कहाँ बिला गई!
महाराज उठ खड़े होकर गंभीर स्वर में बोले, "नक्षत्र, आज अपराह्न में हम लोग गोमती के किनारे वाले निर्जन जंगल में घूमने जाएँगे।"