राजर्षि
गोविन्दमाणिक्य रुक गए। चारों ओर गहन स्तब्धता विराजने लगी। नक्षत्रराय सिर झुकाए चुप रहा।
महाराज ने म्यान से तलवार निकाल ली। नक्षत्रराय के सामने रखते हुए बोले, "भाई, यहाँ आदमी नहीं है, साक्ष्य नहीं है, कोई नहीं है - अगर भाई, भाई की छाती में छुरी भोंकना चाहता है, तो उसके लिए यही जगह है, यही समय है। यहाँ तुम्हें कोई रोकेगा नहीं, कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। तुम्हारी और मेरी शिराओं में एक ही रक्त बह रहा है, एक ही पिता, एक ही पितामह का रक्त - तुम उसी रक्त को बहाना चाहते हो, बहाओ, लेकिन आदमियों की बस्ती में मत बहाना। कारण, जहाँ ये रक्त-बिंदु गिरेंगे, वहीं अलक्ष्य रूप में भ्रातृत्व का पवित्र बंधन ढीला पड़ जाएगा। कौन जाने, पाप का अंत कहाँ जाकर हो। पाप का एक बीज जहाँ पड़ जाता है, वहाँ देखते-देखते गोपन रूप में कैसे हजारों वृक्ष उत्पन्न हो जाते हैं, कैसे धीरे-धीरे सुशोभन मानव-समाज जंगल में परिणत हो जाता है, यह कोई नहीं जान पाता। अतएव नगर में, गाँव में, जहाँ निश्चिन्त हृदय से परम स्नेह में भाई भाई के साथ मिल कर रहता है, वहाँ भाइयों के घरों के मध्य भाई का रक्त मत बहाना। इसीलिए आज तुम्हें जंगल में बुला लाया हूँ।"
इतना कह कर राजा ने नक्षत्रराय के हाथ में तलवार पकड़ा दी। तलवार नक्षत्रराय के हाथ से भूमि पर गिर पड़ी। नक्षत्रराय दोनों हाथों से चेहरा ढक कर रोते हुए अवरुद्ध कंठ से बोला, "भैया, मैं दोषी नहीं हूँ - यह बात मेरे मन में कभी भी पैदा नहीं हुई... "
राजा ने उसे आलिंगनबद्ध करके कहा, "वह मैं जानता हूँ। तुम क्या मुझे कभी चोट पहुँचा सकते हो - तुम्हें और लोगों ने बुरी सलाह दी है।"
नक्षत्रराय ने कहा, "मुझे केवल रघुपति यह सलाह दे रहा है।"
राजा बोले, "रघुपति की सोहबत से दूर रहो।"
नक्षत्रराय ने कहा, "बताइए, कहाँ जाऊँ! मैं यहाँ रहना नहीं चाहता। मैं यहाँ से... रघुपति की सोहबत से भाग जाना चाहता हूँ।"
राजा बोले, "तुम मेरे पास ही रहो - और कहीं जाने की आवश्यकता नहीं - रघुपति तुम्हारा क्या करेगा!"
नक्षत्रराय ने राजा का हाथ कस कर पकड़ लिया, मानो उसे रघुपति के द्वारा खींच लिए जाने की आशंका हो रही है।