राजर्षि

राजर्षि (उपन्यास) : दूसरा भाग : सोलहवाँ परिच्छेद

राजा के आदेश के अनुसार नक्षत्रराय प्रजा के असंतोष का कारण खोजने के लिए प्रभात-काल में स्वयं बाहर निकला। उसे चिन्ता होने लगी, मंदिर कैसे जाए! रघुपति के सामने पड़ जाने पर वह कैसा सकपका जाता है, अपने को नियंत्रित नहीं कर पाता। रघुपति का सामना करने की उसकी कोई इच्छा नहीं है। इसीलिए उसने निश्चय किया है, रघुपति की नजर बचा कर गुप्त रूप से जयसिंह के कमरे में जाकर उससे विशेष विवरण जाना जा सकता है।

नक्षत्रराय ने धीरे-धीरे जयसिंह के कमरे में प्रवेश किया। प्रवेश करते ही सोचा, लौट पाए, तो मुक्ति मिले। देखा, जयसिंह की पुस्तकें, उसके कपड़े, उसकी गृह-सज्जा बिखरी पड़ी है और रघुपति बीच में बैठा है। जयसिंह नहीं है। रघुपति की लाल आँखें अंगारे की तरह जल रही हैं, उसके केश बिखरे हुए हैं। उसने नक्षत्रराय को देखते ही मुट्ठी में मजबूती के साथ उसका हाथ पकड़ लिया। उसे बलपूर्वक जमीन पर बैठा लिया। नक्षत्रराय के प्राणों पर बन आई। रघुपति अपने अंगार-नेत्रों से नक्षत्रराय के मर्म-स्थान तक को दग्ध करके पागल की तरह बोला, "रक्त कहाँ है?"

नक्षत्रराय के हृत्पिंड में रक्त की तरंगें उठने लगीं, मुँह से शब्द नहीं निकले।

रघुपति उच्च स्वर में बोला, "कहाँ है, तुम्हारी प्रतिज्ञा? कहाँ है, रक्त?"

नक्षत्रराय हाथ हिलाने लगा, पैर हिलाने लगा, बाएँ सरक कर बैठ गया, कपड़े का किनारा पकड़ कर खींचने लगा - उसका पसीना बहने लगा, वह सूखे मुँह से बोला, "ठाकुर..."

रघुपति ने कहा, "इस बार माँ ने स्वयं खड्ग उठा लिया है, इस बार चारों ओर रक्त की धारा बहेगी… इस बार तुम्हारे वंश में एक बूँद रक्त बाकी नहीं बचेगा, तब देखना नक्षत्रराय का 'भ्रातृ-स्नेह!' "

" ' भ्रातृ-स्नेह!' हा हा! ठाकुर…"

नक्षत्रराय की हँसी और नहीं निकली, गला सूख गया।

रघुपति ने कहा, "मुझे गोविन्दमाणिक्य का रक्त नहीं चाहिए। जिसे गोविन्दमाणिक्य संसार में प्राणों से अधिक चाहता हो, मुझे वही चाहिए। उसका रक्त लेकर मैं गोविन्दमाणिक्य के शरीर पर मलना चाहता हूँ - उसका वक्ष-स्थल रक्तवर्ण हो जाएगा - उस रक्त का चिह्न किसी भी तरह मिटेगा नहीं। यह देखो, ध्यान से देखो।" कहते हुए उत्तरीय हटा दिया, उसकी देह रक्त में लिपटी है, उसके वक्ष-स्थल पर जगह-जगह रक्त जमा हुआ है।

नक्षत्रराय सिहर उठा। उसके हाथ-पाँव काँपने लगे। रघुपति बँधी मुट्ठी में नक्षत्रराय का हाथ दबा कर बोला, "वह कौन है? कौन गोविन्दमाणिक्य को प्राणों से भी अधिक प्रिय है? किसके चले जाने पर गोविन्दमाणिक्य की आँखों में यह संसार श्मशान हो जाएगा, उसके जीवन का उद्देश्य नष्ट हो जाएगा? प्रात: शैया से उठते ही उसे किसका चेहरा याद आता है, किसकी याद को साथ लेकर वहा रात को सोने जाता है, उसके हृदय-नीड़ को पूरी तरह भर कर कौन विराज रहा है? कौन है वह? क्या वह तुम हो?"

कह कर, जैसे छलाँग लगाने के पूर्व व्याघ्र काँपते हुए हिरन के बच्चे की ओर एकटक देखता है, वैसे ही रघुपति ने नक्षत्र की ओर देखा। नक्षत्रराय हडबड़ा कर बोला, "नहीं, मैं नहीं हूँ।" परन्तु किसी भी तरह रघुपति की मुट्ठी नहीं छुड़ा पाया।

   0
0 Comments