राजर्षि
कह कर पगड़ी पहन ली और राजसभा का वेश धारण कर लिया।
उस समय सभा में प्रहरियों की गवाही ली जा रही थी। चाचा साहब ने सिर झुकाए सभा में प्रवेश किया। विक्रम सिंह के पैरों में नंगी तलवार रख कर बोले, "मुझे बंदी बनाने का आदेश दीजिए। मैं अपराधी हूँ।"
राजा ने विस्मित होकर कहा, "चाचा साहब, बात क्या है?"
चाचा साहब ने कहा, "वही ब्राह्मण। यह सब उसी बंगाली ब्राह्मण का काम है।"
राजा जयसिंह ने पूछा, "तुम कौन हो?"
चाचा साहब ने कहा, "मैं विजयगढ़ का वृद्ध चाचा साहब हूँ।"
जयसिंह - "तुमने क्या किया है?"
चाचा साहब - "मैंने विजयगढ़ का रहस्य बता कर विश्वासघातक का कार्य किया है। मैंने नितांत निर्बोध के समान विश्वास करके बंगाली ब्राह्मण को सुरंग-मार्ग की बात बताई थी…"
विक्रम सिंह ने अचानक क्रोधित होकर कहा, "खड्ग सिंह!"
चाचा साहब चौंक गए - वे लगभग भूल ही गए थे कि उनका नाम खड्ग सिंह है।
विक्रम सिंह ने कहा, "खड्ग सिंह, क्या तुम इतने दिन बाद फिर से बालक बन गए हो!"
चाचा साहब चुपचाप सिर झुकाए रहे।
विक्रम सिंह - "चाचा साहब, तुमने यह काम किया! आज तुम्हारे हाथों विजयगढ़ का अपमान हुआ है।"
चाचा साहब चुपचाप खड़े रहे, उनके हाथ थर-थर काँपने लगे। काँपते हाथों से माथा छू कर मन-ही-मन बोले, "भाग्य!"
विक्रम सिंह ने कहा, "मेरे दुर्ग से दिल्लीश्वर का शत्रु भाग गया है। जानते हो, तुमने मुझे दिल्लीश्वर के सामने अपराधी बना दिया है!"
चाचा साहब ने कहा, "अपराधी मैं अकेला ही हूँ। महाराज अपराधी हैं, दिल्लीश्वर इस बात पर विश्वास नहीं करेंगे।"
विक्रम सिंह ने खीझ कर कहा, "तुम कौन हो? तुम्हारे विषय में दिल्लीश्वर को क्या पता? तुम तो मेरे ही आदमी हो। यह तो, जैसे मैंने अपने हाथ से बंदी के बंधन खोल दिए हैं।"
चाचा साहब निरुत्तर हो रहे। वे अपनी आँखों के आँसू और नहीं रोक पाए।
विक्रम सिंह ने कहा, "तुम्हें क्या दण्ड दूँ?"
चाचा साहब - "जैसी महाराज की इच्छा।"
विक्रम सिंह - "तुम बूढ़े आदमी हो, तुम्हें और अधिक क्या दण्ड दूँ! तुम्हारे लिए निर्वासन का दण्ड ही काफी है।"
चाचा साहब ने विक्रम सिंह के पैर पकड़ लिए; बोले, "विजयगढ़ से निर्वासन! नहीं महाराज, मैं बूढ़ा हूँ, मुझे मति-भ्रम हो गया था। मुझे विजयगढ़ में ही मरने दीजिए। मृत्यु-दण्ड का आदेश कर दीजिए। इस वृद्धावस्था में मुझे सियार-श्वान की तरह विजयगढ़ से मत खदेड़िए।"
राजा जयसिंह ने कहा, "महाराज, मेरा अनुरोध है, इसका अपराध क्षमा कर दीजिए। मैं सम्राट को सारी स्थिति से अवगत करा दूँगा।"
चाचा साहब को क्षमा कर दिया गया। सभा से निकलते समय चाचा साहब काँपते हुए गिर पड़े। उस दिन से चाचा साहब अधिक दिखाई नहीं पड़ते। वे घर से बाहर नहीं निकलते। मानो उनकी रीढ़ टूट गई हो।