राजर्षि
पीताम्बर हँस पड़ा; बोला, "तब तो, आपके सामने आपका वर्णन करना अच्छा नहीं हुआ। जानता, तो कौन माई का लाल ऐसा काम करता! किन्तु ठाकुर, बुरा मत मानिए, पीठ पीछे लोग क्या नहीं कहते! मुझे सामने जो राजा कहते हैं, वे ही पीछे कहते हैं, पितु। मुँह पर कुछ न कहना ही काफी है, मैं तो यही समझता हूँ। जानते हैं, असली बात क्या है, आपका चेहरा कुछ ज्यादा ही नाराजगी-भरा दिखाई दे रहा है, किसी के भी चेहरे का ऐसा भाव देख कर लोग उसकी निंदा करने लगते हैं। महाराज, इतनी सुबह नदी किनारे?"
नक्षत्रराय ने तनिक करुण स्वर में कहा, "मैं तो चला दीवानजी!"
पीताम्बर - "चला? कहाँ? नवपाड़ा, मंडल परिवार के घर?
नक्षत्र - "नहीं दीवानजी, मंडल परिवार के घर नहीं। बहुत दूर।"
पीताम्बर - "बहुत दूर? तो क्या शिकार पर पाइकघाटा जा रहे हैं?"
नक्षत्रराय ने एक बार रघुपति के चेहरे की ओर देख कर केवल दुखी भाव से गर्दन हिला दी।
रघुपति ने कहा, "समय निकला जा रहा है। नाव पर चढ़ा जाए।"
पीताम्बर ने अत्यंत संदिग्ध और क्रुद्ध भाव से ब्राह्मण के चेहरे की ओर देखा; कहा, "तुम कौन हो रे ठाकुर? हमारे महाराज पर हुकुम चलाने आ गए हो!"
नक्षत्र ने परेशान होकर पीताम्बर को एक किनारे खींच ले जाकर कहा, "वे हमारे गुरु ठाकुर हैं।"
पीताम्बर बोल पड़ा, "होने दीजिए ना गुरु ठाकुर। वह हमारे चण्डी मण्डप में रहे, चावल-केले का सीधा भिजवा दूँगा, मान-सम्मान के साथ रहे - महाराज से उसे क्या लेना-देना!"
रघुपति - "वृथा समय नष्ट हो रहा है - तब मैं चला।"
पीतांबर - "जो आज्ञा, देर करने का क्या लाभ, महाशय झटपट चलते बनिए। मैं महाराज को लेकर महल जा रहा हूँ।"
नक्षत्रराय ने एक बार रघुपति के चेहरे की ओर देखा और फिर पीताम्बर के चेहरे की ओर देखते हुए धीमे स्वर में कहा, "नहीं दीवानजी, मैं जा रहा हूँ।"
पीताम्बर - "तब मैं भी चलता हूँ, लोगों को साथ ले लूँ। राजा की तरह चलिए। राजा जाएगा और दीवान नहीं जाएगा?"
नक्षत्रराय ने रघुपति की ओर देखा। रघुपति बोला, "कोई साथ नहीं जाएगा।"
पीताम्बर उग्र हो उठा, बोला, "देखो ठाकुर, तुम…"
नक्षत्रराय ने उसे जल्दी से रोकते हुए कहा, "दीवानजी, मैं चलता हूँ, देरी हो रही है।"
पीताम्बर ने निराश होकर नक्षत्र का हाथ पकड़ कर कहा, "देखो बेटा, मैं तुम्हें राजा कहता हूँ, किन्तु तुम्हें संतान के समान प्यार करता हूँ - मेरी कोई संतान नहीं है। तुम पर मेरा कोई हक नहीं बनता। तुम जा रहे हो, मैं तुम्हें बलपूर्वक नहीं रोक सकता। लेकिन मेरा एक अनुरोध है, जहाँ भी जाओ, मेरे मरने के पहले लौट आना होगा। मैं अपने हाथ से अपना सारा राजपाट तुम्हें सौंप जाऊँगा। मेरी यही एक साध है।"
नक्षत्रराय और रघुपति नौका पर चढ़ गए। नौका दक्षिण की ओर चली गई। पीताम्बर नहाना भूल कर गमछा कंधे पर रखे अन्यमनस्क भाव से घर लौट गया। गुजुरपाड़ा मानो खाली हो गया - उसके समस्त आमोद-उत्सव का अवसान हो गया। केवल प्रति दिन के प्रकृति के नित्य-उत्सव, प्रात:काल पक्षियों के गान, पत्तों की मर्मर ध्वनि और नदी की तरंगों की ताली को विराम नहीं।