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चाय



ग़ज़ल
रोज़ पीता हूँ पीलाता हूँ मैं अक्सर चाय।
कभी होटल तो कभी घर में बैठा कर चाय।
जब कहीं घूमने घर वाले चले जाते हैं। 
खूब पीता हूँ खुद ही घर में बनाकर चाय।
जबसे आंखों से पिलाई है किसी ने मुझको।
मैंने रख दी है गिलासों में उठाकर चाय।
उसको मैं बोलने वाला ही था खुदा हाफिज़।
उसने फिर आगे मेरे रख दी सजाकर चाय।
हाल दिल उसका फक़त मैंने किया था मालूम।
उसने होंठों से मुझे दे दी‌ लगाकर चाय।
हुस्न की आंच पे और इश्क़ की अंगीठी पर।
लाख चाहो भी तो बनती नहीं छुपकर चाय।
मयकदा छूट गया पहले ही हमसे साक़ी।
क्या मिलेगा तुझे अब हमसे छुड़ाकर चाय।
महफ़िल ए शेर ओ सुखन में यही तो लुत्फ है दोस्त।
खूब चलती है सुबह ओ शाम बराबर चाय।
इक प्याली पे मुझे चाय की टरकाओ न तुम।
तौस पर दीजिये मक्खन को लगाकर चाय।
फट गया दूध अगर है तो कोई बात नहीं।
फिर हमें दीजिये काली ही बनाकर चाय।
वैसे भी शायरों को इनके सिवा चाहिये क्या।
शायरी और लगातार दबाकर चाय।
तुम किसी रोज़ मेरे शहर में आकर देखो।
कितनी बिकती है दुकानों पे यहां पर चाय।
मेरे घर की भी तरफ आप निकल आओ कभी।
अपने हाथों से पिलाऊंगा बनाकर चाय।


शायर मुरादाबादी

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5 Comments

Abhilasha Deshpande

25-May-2023 03:40 PM

awesome poem

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वानी

25-May-2023 11:11 AM

Nice

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Swati chourasia

24-May-2023 09:05 AM

बहुत ही बेहतरीन रचना 👌

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