निरुपमा–12

कुमार के पास बहुत-से आदमी आए और आते रहे। भीड़ लगती-बढ़ती रही। लोगों में उत्सुकता, आनंद, सहानुभूति फैली। वह बादामी और काली पॉलिश की दो डिबिया और एक ब्रश लिए बैठा था।



 कई जोड़े पालिश करने को मिले। सबसे एक-ही-एक पैसा उसने लिया। उसकी भलमनसाहत का यह दूसरा प्रमाण था। शहर में सनसनी फैल चली। 


चमार इधर-उधर जो थे, चौकन्ने हुए; वे दो पैसे से कम नहीं और एक आने तक पालिश कराई लेते थे।

कुछ पहचान के लोग भी रास्ते से होकर गुजरे। 'सस्ता साहित्य समुद्र' के प्रकाशक लाला श्यामनारायण लाल देखकर कह गए, "हम चार रुपये फार्म दे रहे थे मोपासाँ के अनुवाद के, वह आपको नहीं मंजूर हुआ; आखिर पालिश और ब्रश लेकर बैठे।"

पं. रामखेलावनसिंह मुँह बिगाड़कर बोले, "सात रुपये घंटे की पढ़ाई लगवा रहे थे, नहीं भायी; अब चमार बनकर पुरखों को तारो।' फिर फिरकर नहीं देखा; कितने स्वगत कह गए!

घंटे-भर बाद कुमार उठा। पास छः आने पैसे आ गए थे। मन प्रसन्न था। संसार में कोई मार नहीं सकता; रोटियाँ चल जाएँगी अगर इसी कार्य को महत्त्व देने के लिए अदृष्ट-चक्र से घूमता हुआ बहुभाषाविद् और लंदन-विश्वविद्यालय का डी.लिट. होकर वह आया है, तो इसे श्रद्धापूर्वक स्वीकार करता है। 

उसका विद्या-प्राप्ति वाला उद्देश्य सफल है। अर्थ-प्राप्ति वाला यदि इस रूप से, विद्यावाले को दिखावे के तौर पर लेकर हो रहा है तो हो, वह कटाक्ष नहीं करता; बल्कि इस कार्य को घृणा करनेवाली ऊँचे वर्ण की दृष्टि से वह घृणा करता है। संभव है, शिक्षा वैसा कार्य-सहयोग देकर भारत को सच्चे वर्ण-निर्माण की शिक्षा दे रही हो; यह सोचकर वह चला।

उसी गाड़ीवाले बरामदे के नीचे कई और बंगाली एकत्र थे। जब वह फाटक के भीतर गया और उसकी ओर कौतुकपूर्ण प्रश्नभरी दृष्टियाँ उठीं, वह समझ गया कि इससे पहले उसके संबंध में काफी बातचीत हो चुकी है। 

मोटर की बगल से निकलकर एक पैर बरामदे की सीढ़ी पर चढ़ाकर यामिनी बाबू से काम देने के लिए उसने कहा। तब तक एक बंगाली सज्जन ने पूछा, "आप कहाँ रहता है?"

"एक गाँव रामपुर है।"

"रामपुर में?" सुरेश बाबू ने पूछा। सामने के दीवानखाने में निरुपमा थी। दरवाजे के पास आ गई।

"जी,' निगाह नीची किए हुए कुमार ने कहा।

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