निरुपमा–14

पाँच


नीली मार खाकर जिस तरह निरुपमा से नाराज हुई थी; अनादृत होकर उसी तरह यामिनी बाबू से हुई। वह शारीरिक शक्ति में दीदी या यामिनी बाबू से कम है!

 पर बदला चुकाने की शक्ति में नहीं। जिस समय चमार के रूप में कुमार गया था और उसके उत्तरोत्तर बढ़ते परिचय से लोगों में आश्चर्य और श्रद्धा बढ़ रही थी, उस समय बिना व्यक्तित्व और बिना विशेषता की समझी गई नीली भी एक बगल खड़ी हुई सबकुछ देख-सुन रही थी। 

उसे अपने प्रति होनेवाली अवज्ञा की परवा न थी, कारण, उसने निश्चय कर लिया था कि ऊँचाई, शक्ति और विद्या जैसी कुछ ही बातों में वह दूसरों से छोटी है-जब वह उनकी ऊँचाई तक पहुँच जाएगी, तब वैसी हो जाएगी, यों दूसरों की तरह वह भी सब बातें समझ लेती है। कुमार के चले जाने के बाद देर तक उसके संबंध में बातें होती रहीं, वह सब समझी।

वहाँ कई और बंगाली युवक थे। उन लोगों ने कुमार के विद्वान होने पर भी, जूता पालिश करने का पेशा इख्तियार करने की तारीफें कीं।

 पहले देर तक बहस हो चुकी थी कि देश गिरा हुआ है, गुलामों की कोई जाति नहीं; फिर भी जातीय ऊँचाई का अभिमान लोगों की नस-नस में भरा हुआ है, इससे मानसिक और चारित्रिक पतन होता है; हम लोगों के एक-दूसरे से न मिल सकने, इस तरह जोरदार न हो पाने का यह मुख्य कारण है।


 इतने बड़े विद्धान का निस्संकोच भाव से यह कार्य इख्तियार करना महत्व रखता है। इससे लोगों की आँखें खुलेंगी, उन्हें ठीक-ठीक मार्ग सूझेगा। यों यूरोप विद्यार्थी जाते ही रहते हैं, या तो वहाँ बिगड़ जाते हैं या मेम लेकर, नहीं तो पदवी के साथ काले रंग के गोरे होकर आते हैं-अपनी संस्कृति के पक्के दुश्मन बनकर। 


यूरोप की चारित्रिक शिक्षा यही है जो इसमें देखने को मिली कि गर्व का नाम नहीं, अपने काम से काम; हृदय से इस काम को छोटा नहीं समझता। बड़ी देर तक सोचते रहकर यामिनी बाबू ने कहा, परिस्थिति मजबूर करती है तब बुरे-भले का ज्ञान नहीं रहता, जो काम सामने आता है, इनसान इख्तियार करता है, क्योंकि पेटवाली मार सबसे बड़ी मार है। 


दीवानखाने में बैठी हुई निरुपमा सुन रही थी। यामिनी बाबू के विकृत स्वर से मुँह बनाकर उठकर ऊपर चली गई-हृदय से दूसरे युवकों की आलोचना का समर्थन करती हुई। नीली बातें भी सुन रही थी और बातें करनेवालों का बोलते वक्त मुँह भी देख रही थी।

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