निरुपमा–18

कहने के सभ्य ढंग पर कुमार हँसा। फिर पूछा, "और हमारे गाँव की जमींदार तुम्हारी दीदी का नाम?"


नीली मुस्कुराकर बोली, "श्री निरुपमा देवी।"

कुमार कुछ सोचता हुआ-सा उठा, कमरे के बाहर होटल की घड़ी लगी हुई थी, देखने के लिए। 

लौटा तो नीली ने पूछा, "अच्छा, एक ग्राउंड की घास दो घोड़े दो दिन में चरते हैं तो एक घोड़ा कितने दिन में चरेगा?"

"चार दिन में। क्यों? मेरा इम्तहान हो रहा है?"

"नहीं। आप तो आज चले जाएँगे।"

"तुम्हें कैसे मालूम हुआ?"

"आप जब कह रहे थे तब मैं वहाँ बैठी थी। अब कहाँ जाएँगे?"

"कुछ ठीक नहीं। तुम्हारी दीदी की इतनी जमींदारी है, कहीं जगह दिला दो!"

नीली उठी और तस्वीर लिए दौड़ती हुई जैसे कुछ लक्ष्य कर घर चली गई।

दीदी के कमरे में जाकर देखा, वह अंग्रेजी का एक उपन्यास पढ़ रही थी। नीली को अपनी गलती मालूम होते ही दीदी के प्रति कुछ वैमनस्य दूर हो गया। 

बगल में बैठकर बोली, "कुमार बाबू ने मोची का काम किया है, इसलिए होटलवाले उन्हें होटल में नहीं रख रहे। वह आज कहीं चले जाएँगे। बड़ी अच्छी बँगला बोलते हैं।"

निरुपमा सचिंत आँखों से सोचती रही। किताब एक बगल रखी रही।

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