निरुपमा–20

एक शादी की बातचीत पहले निरू की माँ के समय हुई थी, उन्होंने सुधार का इतना ही अर्थ समझा था कि कन्या बालपन पार कर जाए तब उसका ब्याह हो जाना चाहिए; पर उसकी मृत्यु से वह शादी रुक गई, दोष माना गया, फिर निरू के पिता का भी देहांत हो गया। 


योगेश बाबू विचारों में यद्यपि सनातनधर्मी थे, फिर भी निरू के विवाह-विषय में ब्रह्मसमाजी बन गए। कहा-आज-कल बीस साल से पहले का ब्याह, ब्याह में ही शुमार करने योग्य नहीं।

 भीतरी उद्देश्य उनका और था, जिसका पता उनके अलावा उनकी पत्नी को भी नहीं लगा। बात यह थी कि रामलोचन की बीमारी में उन्होंने पचास हजार का खर्च तैयार किया था।


 उनकी मृत्यु के बाद उनकी जमींदारी तथा मकान-किराए की आमदनी उसी खर्चवाले कर्ज में ब्याज के साथ काटते जाते थे, वह भी इस तरह कि बीस रुपये महीने के मुख्तारआम की जगह सुरेश का मासिक वेतन दो सौ अलग करके, और घर के खर्च और मुआमलों-मुकदमों में जो तीन के तेरह करते थे, वह अलग। 

इस रूप से ब्याज निकालकर तीन साल में सिर्फ दस हजार रुपये असल में कटे थे। 

बाकी जिंस-असबाब निरू के घर से उनके घर पहुँचकर कम अंशों में निरू के रह गए थे। गहने अपनी असलियत खो बैठे थे, उनकी जगह उन्हीं की तरह हलके, दूसरे बनकर आ गए थे। निरू को यह कुछ मालूम न था। 

इस सबके संबंध में उसे ज्ञान भी बहुत थोड़ा था। योगेश बाबू के पास इन सबका सच्चा चिट्ठा तैयार था। वे कभी-कभी निरू को सुनाकर कहते थे, 'तम्हारे पिता ने सिर्फ एक जमींदारी पक्की खरीदी है।' निरू हँस देती। व्यंग्य और अन्योक्ति का इतना पता उसे न था। 

उसका आदर यथेष्ट था; वह काफी समझदार हो चुकी थी। जब उसकी माता और पिता स्वर्गवासी हुए, उसे जोरदार धक्का लगा। पर मामा-मामी और वहाँ के भाई-बहनों के स्नेह में अब वह भूलता जा रहा है।

 इधर कुछ दिनों से, काफी समझदार होकर वह ऐसा अनुभव कर रही है कि उस गृह के वायुमंडल में उसे स्नेह देकर तृप्त कर देनेवाला कुछ भी नहीं है, वहाँ एक अभाव जैसे सदा ही बना रहता है। 

जब से विवाह की बात उठी, यामिनी बाबू की आमद-रफ्त बढ़ी, यह अभाव तीव्रता प्राप्त करता गया; जैसे दूर तक विचार करने पर भी सुख का कोई चिह्न स्पष्ट नहीं देख पड़ता। वह केवल गुरुजनों, समाज के अदब-कायदों, विरासत में मिली वहाँ की संस्कृति का अनुसरण करती जा रही थी। 

क्यों संस्कृति हृदय को संस्कृत नहीं करती-उसके प्रकाश से आई दिव्य अनुभूति प्राणों को समुद्भासित नहीं करती, उसकी समझ में नहीं आता। पर उसका अपना कोई भी निश्चय नहीं। वह जैसे वहीं की, उन्हीं की इच्छा पर निर्भर, उन्हीं के सुख से सुखी है।

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