निरुपमा–22
"मिलने के लिए!" स्नेह के स्वर से कहकर मुस्कुराकर वृद्ध ने फरशी की नली सँभाली।
"जी नहीं।" साग्रह देखते हुए।
"तो! गर्मी की छुट्टियों में यहीं क्यों न रहो? खस की टट्टियों का आराम। मैं इसीलिए पहाड़ नहीं जाता-व्यर्थ खर्च!" सिर झुकाकर एक बगल देखने लगे।
"जी, यहीं रहूँगा।" भक्त की दृष्टि से ताकते हुए।
"हाँ, मैंने सुना है, निरू भी यही चाहती है। उसी ने कहा है शायद तुमसे?' पूरी प्रसन्नता से मुँह देखते हुए।
लजाकर, "जी, और काम है।"
"कहने लायक हो तो कहो।"
"इसीलिए आया हूँ। रुपयों की जल्द आवश्यकता होगी। एक रेहन की संपत्ति है।"
"कानपुर में?"
"जी, कोई ले तो रजिस्ट्री बेच दूंगा या करार की मियाद पूरी हो चुकी है, दावा कर दूंगा।"
"कैसी संपत्ति है?" योगेश बाबू अच्छी तरह पल्थी मारकर तनकर बैठे।
यामिनी बाबू ने सारा हाल कहा। फिर यह भी बताया कि उन्होंने सुना है, वह रामपुर का रहनेवाला है। कुमार का हाल कहकर नम्रता से मुस्कुराए।
"हूँ!" योगेश बाबू ने समझ की साँस छोड़ी। फिर कुछ देर तक यामिनी बाबू को देखते रहे।
फिर अपने स्वभाव के अनुसार स्वस्थ होकर स्नेह के स्वर से बोले, "कहाँ प्रोफेसरी, कहाँ यह जहमत?' कुछ रुककर, "तुम चाहो तो हम शक्तिभर तुम्हारी सहायता के लिए तैयार हैं।"
"जी हाँ, मैं तो इसीलिए आया था। बाबा हैं नहीं। सच्ची सलाह आप ही एक देने वाले हैं और सहायक।"
योगेश बाबू हँसे। कहा, "जरा-सी अड़चन है, फिर कहेंगे, आखिर निरू की संपत्ति तो तुम्हारी ही संपत्ति है?
अभी निरू के पास भी रुपया नहीं," हँसकर, "बुढ़ापे के सहारे के लिए कुछ कमा रखा था। तुम कहो तो सुरेश के नाम वह रजिस्ट्री खरीद ली जाए; या हम निरू को कर्ज दें, तुमसे निरू खरीद ले।"
"मकान मौके के हैं; अगर आप निरू को कर्ज देकर उसी के नाम रजिस्ट्री खरीद लें, तो बड़ी भारी कृपा हो।" ।
"अच्छा, अच्छा!" वृद्ध उसी प्रसन्नता से यामिनी बाबू को देखते रहे।
एक मिनट बाद प्रणाम कर यामिनी बाबू ने चलने की आज्ञा माँगी।
"अच्छा बेटा, चिंता न करना," कहकर यामिनी बाबू के मुड़ते वृद्ध ने घूरा।
सात