छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार
आप पंचों की जैसे मरजी हो मुझे वहीं खबर कर दीजो। मैं आप लोग्गों से बाहर थोड़े ही हूँ!लालाजी का इंटों का खासा बड़ा कारोबार था। सारे इलाके के मकान उन्हीं के भट्ठे की ईंटों से बने थे। आजकल उनका बिजनेस शहर में ज़रूर मन्दा था, मगर आसपास के गाँवों में धड़ाधड़ पक्के मकान बनते जा रहे थे। लालाजी अपनी बात खत्म करते हुए उठने को हुए तो उनके साथ ही मास्टर उत्तमचन्द भी खड़े हुए।
लालाजी को उनकी छड़ी देते हुए उत्तमचन्द दरवाजे की ओर बढ़ने ही वाले थे कि सेक्रेटरी गनेशीलाल अवसर का लाभ उठाकर बोले, "मामले को बिना चित्त-पट्ट करे हम आपको जाने नहीं देंगे, लालाजी ! हमारा भी बजार का दिन है आज। पचास कलदार का तो सैंधा नमक बिक गया होता अब लों। मगर मास्टरों के सलेक्शन का मामला अटका है तो इसका फैसला भी आप ही करेंगे।"गनेशीलाल की पसरहट्टे की दुकान थी। लालाजी को उठते देख उन्हें सहसा दुकान का ध्यान आ गया और इस बात का भी कि आज बाजार का दिन है। और हालाँकि वह अपने छोटे भाई सोहन को, जो लेन-देन का काम करता था, दुकान पर छोड़ आए थे, पर उनके मन को तसल्ली नहीं हो रही थी। क्योंकि कागज पर अंगूठा लगवाकर रुपवा देना, और तराजू पर अँगूठा लगाकर सौदा देना, दो अलग चीजें होती हैं।
और इस बारे में उन्हें अपने भाई की बुद्धि पर जरा भी भरोसा नहीं था। पर यहाँ भी उसी भाई की इज़्ज़त का सवाल था सो बीच में से कैसे उठते?तभी वाइस-प्रेसीडेंट चौधरी नत्थूसिंह सिर की गोल टोपी सँभालते हुए बोल उठे, "हाँ, लालाजी, जब तो फैसला आपके ही हाथ में है।" फिर अपने साथियों की ओर देखकर वह बोले, "मैं अपनी तरफ से लालाजी को पूरे इख्तियार देता हूँ। जिसे चुन लेंगे मुझे मंजूर होगा।" अब कोई चारा ही न था। चूनाँचे तुरन्त ही सेक्रेटरी गनेशीलाल ने भी अपनी ओर से लालाजी को सारे अधिकार सौंप दिए।
और लालाजी, जो इस स्थिति को टालने के लिए ही वहां से खिसक जाना चाहते थे, बुरी तरह फंस गए।बात यह थी कि मास्टरों के चुनाव में लालाजी को छोड़कर शेष बारह मेम्बरों में से छह-छह के दल बन गए थे। एक दल गनेशीलाल के साथ था और दूसरा चौधरी नत्थूसिंह के। लालाजी ने आज तक किसी को नाराज करना सीखा ही न था। सदा ठकुर-सुहाती ही कही थी।कुछ देर माथे पर हाथ रखकर सोचने के बाद लालाजी बोले, "अब देख्खो कित्ती सान्ती है। ऐसे में मन से विचार भी उपजता है।
"वास्तव में कमरे में निस्तब्धता छा गई थी। दोनों पक्षों के लोग अपनी-अपनी सफलता की आशा में मुँह बाए लालाजी की ओर ताक रहे थे। लालाजी पर सबको विश्वास था कि फैसला हमारे पक्ष में करेंगे। तभी लालाजी बोले, "जग-जाहिर बात है भय्यो कि मास्टरों के चुनाव में दुनिया के हर स्कूल में प्रिंसिपल जरूर रहवै है। मगर हमारे यहाँ कोई प्रिंसिपल नहीं है इसलिए अगर पंचों की राय हो तो उत्तमचन्द का वोट भी ले लिया जावै, और वो जिसकू कहै उसै ही हम रख लेवें।"लालाजी ने अपनी समझ से अपने बच निकलने की पूरी तैयारी की थी।
पर दोनों पक्ष आज जैसे लालाजी को अपने प्रति वफादारी को तौल लेना चाहते थे। अतः कोई राजी नहीं हुआ। गनेशीलाल ने तो यहाँ तक कहा कि उत्तमचन्द लौंडा है। चौधरी नत्थूसिंह ने कहा कि लालाजी के होते हुए उससे राय मांगना निहायत बेवकूफ़ी है।अपना नाम सुनते ही उत्तमचन्द कुरसी से कुछ आगे को झुक आए मगर सेक्रेटरी और वाइस-प्रेसीडेंट की अपने सम्बन्ध में ऐसी राय सुनकर उन्होंने टेढ़ी करते हुए अपनी गर्दन झुकाई और मुख पर सहमति-सूचक सलज्ज मुस्कान बिखेरकर असमर्थता में हाथ जोड़ दिए।लालाजी की व्यावहारिक बुद्धि को यह समझने में देर नहीं लगी कि अब उनकी परीक्षा का समय आ गया है।
अतः उन्होंने अपना कर्तव्य निश्चित किया और बोले, "तो भय्यो, बखत कू क्यूँ बरबाद करा जावै। उधर मास्टर लोग भी सुबह से इन्तजारी में बैट्ठे हैं। अगर पंच बुरा न मान्नें तो दोन्नों तरफ का एक-एक आदमी रुक जाये, और बाक्की पंच लोग दूसरे कमरे में चले जावें।"बात माकूल थी। किसी को एतराज नहीं हुआ। सारे मेम्बर खुद ही कमरे से उठकर चले गए। केवल गनेशीलाल और चौधरी नत्थूसिंह ही वहाँ रह गए। लालाजी ने कहा, "हाँ, भय्या गनेसीलाल, अब कहो क्या बात है ?"गनेशीलाल खखारकर गला साफ़ करते हुए बोले, "लालाजी, आप तो जान्नै ही हैं। दसियों साल्लों से कमेटी का मिम्बर हूँ। आज लौं मैंन्ने सदा न्याय की बात करी है। अब