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छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार

यह सचमुच एक भयंकर प्रतिक्रिया थी। गाँवों के अध्यापकों की कृषियोजना-सम्बन्धी यह प्रतिक्रिया मैनेजिंग कमेटी तक न पहुँची हो, ऐसी बात नहीं। और अध्यापकों की इन बेहूदी बातों पर चौधरी नत्थूसिंह और गनेशीलाल को क्रोध न आया हो, ऐसी भी बात नहीं। पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ते देख लाला हरीचन्द ने सबको शान्त कर दिया था। कहा था, "भय्यो ! जहाँ चार आदमी होवें, वहाँ चार राय होवें ही हैं। पर हमें तो स्कूल का भला देखना है।"उन्होंने तत्काल कोई कार्यवाही न करके केवल तत्कालीन प्रिंसिपल द्वारा सभी अध्यापकों के पास यह सूचना पहुंचा दी थी कि कृषि-योजना का विरोध मैनेजिंग कमेटी का विरोध है और ऐसा करनेवाले अध्यापकों के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही की जा सकेगी।कमेटी की इस सूचना का मतलब सब अध्यापक इतनी अच्छी तरह समझते थे कि कृषि-योजना-विरोधी खुली-खली आवाजें थोड़े ही दिनों में कानाफूसी और फुसफुसाहटों में बदलती हुई धीरे-धीरे शान्त हो गई थीं। और जयप्रकाश सीने में असफल विद्रोह की चिंगारी दबाए गाँवों के विद्यार्थियों की अदूरदर्शिता और बुद्धिहीनता को कोसता रह गया था।जयप्रकाश को अच्छी तरह याद है कि इस सिलसिले में उसने जब मास्टर उत्तमचन्द से यह कहा था कि कम-से-कम परीक्षाओं के दिनों में तो वह फसल की कटाई के लिए गाँवों के विद्यार्थियों को न भेजें तो उसे प्रिंसिपल द्वारा एक लिखित चेतावनी मिली थी। वह कागज अभी भी उसके पास है। उसमें कहा गया था, "अध्यापक जयप्रकाश कॉलेज में गाँव और शहर की बात उठाकर गाँवों के लड़कों का एक अलग दल बनाना चाहते हैं जो सर्वथा अवांछनीय है। इस तरह का वातावरण किसी भी संस्था के स्वस्थ विकास के लिए सर्वथा घातक है। यदि अध्यापक ने अपनी त्रुटि शीघ्र न सुधारी तो अनिच्छापूर्वक उन्हें संस्थान की सेवाओं से निवृत्ति दे दी जाएगी।"और, इसी के साथ सारा तूफ़ान समाप्त हो गया था। गाँवों के अध्यापक आपस में मिलने और बोलने और कृषि-योजना पर बातें करने तक से कतराने लगे थे। और लड़कों ने इच्छा-अनिच्छापूर्वक रबी की फसल भी काटी थी और परीक्षा भी दी थी।कृषि-योजना के एक वर्ष के इस संक्षिप्त-से इतिहास पर सोचते-सोचते जयप्रकाश अतीत में ऐसा खो गया कि उसे पता भी नहीं चला कि वह कब शहर की सीमा में घुस आया है। उसी के साथ-साथ चलनेवाला सत्यव्रत भविष्य में खोया था। किन्तु शहर में प्रविष्ट होकर आर्यसमाज गली के पास आते ही बोला, "तो भाईजी, मुझे आज्ञा है?"“हाँ-हाँ।" चेहरे पर एकदम सरल निर्मल मुस्कान लाते हुए जयप्रकाश ने कहा, "कल कॉलेज खुल रहा है। मुलाकात होगी।"और दोनों अपने अपने में खोए दो विपरीत दिशाओं की गलियों में मुड़ गए।दोनों में अंधेरा था।

कोठरी (अध्याय-4)कोठरी में पहुँचकर सत्यव्रत ने इत्मीनान की साँस ली। अपना ठौर, चाहे वह गीली मिट्टी का ही क्यों न हो, कितना प्यारा और विश्रान्तिदायक होता है। दिनभर इंटरव्यू के लिए आए उम्मीदवारों की उबा देनेवाली बातें, भूखे पेट में कुलबुलाती हुई विवशता, गूँगे का अशोभन रूप से आवेश में आ जाना और मास्टर जयप्रकाश से भेंट - सबकुछ बारी-बारी से उसके सामने आता चला जाता है। उसके विचारों में कहीं तनाव नहीं, मन में कहीं थकावट नहीं! केवल एक ऐसा सन्तोष है जो किसी सपने के पूर्ण होने पर ही हो सकता है।
आर्यसमाज मन्दिर की कोठरी में इच्छित काल तक रहने की सुविधा उसे मिल गई है। इसी कारण वह चौबीस घंटों में उससे इतना अपनत्व स्थापित कर बैठा है कि कहीं अजनबीपन का बोध ही नहीं होता। यद्यपि कभी-कभी यह मन ज़रूर होता है कि वह उड़कर घर पहुँच जाए और माँ से कहे, “माँ, देख, मुझे नौकरी मिल गई। वही नौकरी जिसे जीवन का ध्येय बनाकर मैं चला था। कौन कहता है माँ, कि मनुष्य के सारे सपने पूर्ण नहीं होते ? मेरा तो एक ही स्वप्न था, देख न, वह भी पूरा हो गया !” और माँ की प्रसन्नता की कल्पना करके सत्यव्रत भी प्रसन्न हो उठता है। हाँ, बहन की क्या प्रतिक्रिया होगी इसका ठीक अनुमान लगाने में उसे कुछ समय लगता है। खुशी तो खैर उसे भी होगी ही, पर वह उसे प्रकट करने के लिए कोई बच्चों-जैसी बात कहेगी, जैसी उस दिन विदा करते हुए उसने कही थी, ‘भैया, अगर तुम्हें वह नौकरी मिल गई तो मैं ज़रूर एक अच्छा-सा ब्लाउज़ सिलवाऊँगी, मेरी कोई भी सहेली अब कमीज़ नहीं पहनती, हाँ !' और वह प्रत्येक वाक्य के साथ थोड़ी-थोड़ी नाराज़ होती गई थी। पर अन्तिम 'हाँ' कहते हुए तो उसका मुँह कचौरी - जैसा फूल गया था। और जब सत्यव्रत ने भी वैसा ही मुँह फुलाकर उसे चिढ़ाया तो वह खिलखिलाकर हँस पड़ी थी।

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