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छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार

कल कॉलेज खुल रहा है। कल मंगलवार है। पाँच दिन बाद वह घर पहुँचकर खुद ही सबको यह खुशख़बरी दे देगा। पर माँ ने कहा था, 'ख़त लिखना ।' लेकिन ख़त ही कौन इस हफ़्ते से पहले पहुँच सकता है ? सिर्फ़ मंगलवार को ही गाँव में डाकिया जाता है और रविवार को वह खुद ही पहुँच जाएगा। माँ ने तो यह भी कहा था, 'अपने खाने का खयाल रखना।' लेकिन चाहने पर भी यहाँ खाने का क्या ख़्याल रखा जा सकता है ? कोई भी ऐसा भोजनालय नहीं, जहाँ शुद्ध भोजन मिल सके ! और तो और, एक हलवाई तक यहाँ नहीं है । मन्दिर के चारों तरफ़ मुसलमानों का मुहल्ला है। फाटक से बाहर निकलो तो बस सड़क तक पूरी गली में गोश्त -ही-गोश्त की दुकानें हैं। बस, दुकानों पर नाम मात्र को टूटी-फूटी चिक पड़ी रहती हैं जिनके पार लटके हुए बकरों के कटे - साबुत जिस्म और लाल गोश्त के बड़े-बड़े लोथड़े झाँकते रहते हैं ।
वह जब स्टेशन से मन्दिर का पता पूछता हुआ आया था तो इस गली में घुसते ही एक अजीब-सी गन्ध का अनुभव करके तथा खुजली-भरा जिस्म लिए रिरियाते कुत्तों और पिल्लों को देखकर उसे घोर वितृष्णा हुई थी । मक्खियों के मारे अलग उसकी नाक में दम हो गया था और उसने सोचा था कि उस जैसे व्यक्ति के लिए इस जगह बहुत दिनों तक रहना सम्भव न हो सकेगा । किन्तु आर्यसमाज मन्दिर में पहुँचकर उसने जो सफ़ाई और सुविधाएँ देखीं, उनसे उसका विचार बदल गया। जो कोनेवाली कोठरी उसे रहने के लिए दी गई उसमें पक्का सीमेंट का फ़र्श था, आलमारी थी और एक तख़्त भी पड़ा था । कोठरी के सामने ही साफ़-सुथरा आँगन था जिसके बीचोबीच चौबच्चे में एक हैंडपम्प लगा था । सहन के चारों ओर आयताकार बरामदा था और उसकी कोठरी से बाईं ओर दो-तीन कमरे छोड़कर यज्ञशाला थी, जहाँ आजकल एक स्वामीजी ठहरे हुए थे ।
सत्यव्रत को यह वातावरण बहुत पसन्द आया। यज्ञ की गन्ध और वेद मन्त्रों का अस्पष्ट संगीतभरा उच्चारण उसके कानों में अमृत घोल गया। इंटरव्यू से लौटने के बाद कोठरी में लेटा हुआ वह कुछ देर तक तो इस संगीत को सुनता रहा था, पर बाद में जब नहीं रहा गया तो वह स्वयं ही यज्ञशाला में जा पहुँचा। कैसा पवित्र दृश्य था ! यज्ञशाला के मुख्य द्वार से यज्ञ वेदी तक श्रद्धालु नर-नारियों की भीड़; आगे गन्ध बिखेरती यज्ञ की निर्धूमशिखा और उसके दूसरी ओर फल, सामग्री और घृत की आहुति डालते हुए पद्मासन लगाकर बैठे तेजोज्ज्वल मुखवाले स्वामी अभयानन्द सरस्वती । स्वामीजी के पीछे खड़े उनके दो सहयोगियों द्वारा उच्च स्वर में मन्त्रोच्चार और उन्हीं के साथ अस्फुट स्वर में स्वामीजी के मधुर कंठ की गुनगुनाहट ! कुल मिलाकर ऐसा सम्मोहक वातावरण था कि दोपहर की हल्की गर्मी का ताप सहन करके भी वह निश्चित-सा वेदी के निकट खड़ा यज्ञ की अग्नि- शिखा में अपना भूत-भविष्य देखता रहा ।
अचानक सत्यव्रत को महसूस हुआ कि कोठरी में अन्धकार भर गया है और आर्यसमाज की ओर से मिले दीये की बत्ती शायद तेल में सरककर बुझ गई है। आँगन में सन्नाटा है, केवल स्वामीजी के कमरे में कुछ लोग सम्भवतः अब भी बातचीत कर रहे हैं । उसका मन उठकर दीया जलाने को नहीं हुआ। पड़े-पड़े ही उसने झोले में से चादर निकाली और सिरहाने लगाकर फिर सोचने लगा। पहले उसने सोचा कि वह छात्रों को पढ़ाने की विधियों का विश्लेषण करके एक निश्चित प्रणाली तय कर ले। मगर फिर उसे लगा कि बिना पाठ्यक्रम देखे ऐसा सम्भव नहीं है। दूसरे, अन्य अध्यापकों के सहयोग एवं सम्मति की भी इसमें आवश्यकता पड़ेगी। फिर भी उसकी शिक्षण प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि छात्रों का व्यक्तित्व यज्ञ की अग्नि की भाँति ज्ञान की ज्योति से जगमगा उठे। उस चमक से आस-पास के लोग अभिभूत होकर श्रद्धावनत हो जाएँ। तभी उसका श्रम सार्थक है, तभी उसका शिक्षण सार्थक है । अन्यथा इस नाशवान संसार में 'को मृते वा को न जायते ।' शिक्षक का अर्थ ही यह है कि विद्यार्थी का संस्कार करके उसमें आदर्श की प्रतिष्ठा करे। तो उसका काम विद्यार्थियों के संस्कार से शुरू होगा ताकि वे ज्ञान और आदर्श को ग्रहण करने योग्य हो सकें।
इसी प्रसंग में अचानक उसे लगा कि छात्रों के संस्कार की बात उसके मन में यूँ ही नहीं आ गई बल्कि इसके पीछे एक सांस्कृतिक सिद्धान्त निहित है । संस्कृत-साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब गुरुओं ने किसी शिक्षार्थी को इस कारण शिक्षा देने से इनकार कर दिया कि वह उसका पात्र नहीं था। तो पहले पात्रता विकसित करनी पड़ती है। आज यज्ञ में आहुति देने के लिए स्वामीजी से कितने लोगों ने प्रार्थना की थी ! पर सभी तो उसके पात्र नहीं थे। इसीलिए उन्होंने किसी से स्नान करने के लिए कहा, किसी से हाथ-मुँह धोकर आने के लिए ।

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