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छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार

छदम्मीलाल को तो उन्होंने अपनी कोरी धोती ही दे दी ताकि वह स्नान के बाद अलीगढ़ी पाजामा बदलकर उसे पहन सके । परन्तु सत्यव्रत को अवश्य उन्होंने अनायास ही बुला लिया था। उसने यों ही स्वामीजी की ओर देखा था और उन्होंने दो उँगलियाँ उठाकर हिलाईं और बराबर का आसन थपथपाकर आने का संकेत कर दिया। वह इसके लिए तैयार भी न था । दिन-भर इंटरव्यू की कशमकश, थकावट और पसीने का अहसास और दूसरे लोगों के प्रति स्वामीजी के वर्जनात्मक दृष्टिकोण से वह इतना संकुचित हो उठा कि उनके पास जाकर बैठने का उसमें साहस नहीं हुआ। स्वामीजी ने फिर दृष्टि उठाई तो वह सकपकाकर बोला, “जी, मैं स्नान कर आऊँ ?” हालाँकि वह सुबह ही स्नान कर चुका था परन्तु उसे लगा कि वह इतनी प्रखर दृष्टि का सामना नहीं कर पाएगा। वह बहुत देर से देख रहा था कि स्वामीजी जब खड़े होकर दायाँ पाँव आगे बढ़ाकर यज्ञ में आहुति डालते तो उनके मुख-मंडल पर अलौकिक तेज उभर आता था । आहुति डालने के पश्चात् जब वह हाथ उठाकर, लाल-लाल आँखों से आकाश की ओर तन्मयतापूर्वक निहारते हुए कुछ बुदबुदाते थे तो ऐसा लगता था मानो स्वर्गीय शक्तियों से बातचीत कर रहे हों। लोग श्रद्धा से नत- नत हो - हो जाते थे ।
एक क्षण के लिए सत्यव्रत को लगा उसका बहाना काम कर गया, किन्तु दूसरे ही क्षण उसका अनुमान गलत सिद्ध हुआ । अदृश्य से जाने क्या बातें करके स्वामीजी ने फिर उसे अपने पास आने का संकेत किया और सधी हुई गम्भीर वाणी में पहली बार बोले, “हम जानते हैं, तुम्हारी आत्मा शुद्ध है। आओ !” कोई चारा न देख, विवश होकर झिझकता हुआ-सा सत्यव्रत आगे बढ़ा और उसी प्रकार दृष्टि नीची किए स्वामीजी के दाएँ हाथ की ओर बैठ गया। बाएँ हाथ का आसन अब भी खाली पड़ा था।
यज्ञ वेदी के निकट होने के बावजूद अब उसे उतनी गर्मी नहीं लग रही थी क्योंकि कुछ श्रद्धालु पुरुष ताड़ का बड़ा-सा पंखा लेकर हवा करने लगे थे। तभी स्वामीजी के सहयोगियों में से एक ने ताज़ा हलुवे का एक बड़ा-सा थाल उनके सामने ला रखा। दूसरे सहयोगी ने आम की मोटी-मोटी लकड़ियाँ लगाकर यज्ञ की अग्नि प्रदीप्त की ।
शुद्ध घी में बसे हलुवे की गन्ध जब सत्यव्रत की नाक से होती हुई आमाशय तक पहुँची तो अनायास उसे ध्यान आया कि वह सुबह से भूखा है और उसकी अंतड़ियों में हल्का-सा दर्द होने लगा है। नियुक्ति की खुशी में उसे अब तक खाने की याद ही न आई थी ।
तभी स्वामीजी ने सामने रखी हवन सामग्री के दोनों बड़े-बड़े थालों को इधर-उधर अपने दाएँ-बाएँ खिसका दिया और हलुवे का थाल लेकर खुद उठ खड़े हुए ।
भूख के बारे में सोचते हुए कुछ क्षणों के लिए सत्यव्रत इतना खो गया कि उसे यह भी पता न चला कि कब स्वामीजी ने स्त्रियों की भीड़ में से संकेत द्वारा एक लड़की को आहुति-योग के लिए बुला लिया है। उसका ध्यान तब टूटा जब एक साफ़-सी सफ़ेद धोती में लिपटी हुई वह लड़की स्वामीजी के बाईं ओरवाले खाली आसन पर आकर बैठ गई ।

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