छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार
कृषि-योजना (अध्याय-5)अगले दिन उठते ही सत्यव्रत को खाने-पीने की फ़िक्र हुई और स्नान एवं पूजा-पाठ से निबटने के बाद वह नौ बजे के लगभग बाज़ार की ओर चला ।
.... राह में मंडी के पासवाले मीठे कुएँ पर चरखी की धड़धड़ आवाज़ के साथ कुएँ में डोल डालते हुए पंजे पनवाड़ी ने पास ही बाल्टी से नहाते हिन्दू कॉलेज की कमेटी के एक मेम्बर छदम्मीलाल पर प्यार का हमला किया, “क्यों लाला, अब के तो लाला हरीचन्द और गनेसीलाल की पिंसन गई ? और बिचारे नत्थूसिंह को तो लौंडिया की शादी करनी थी । च... च... या परवरदिगार !”
.... सत्यव्रत बात को समझे बिना ही आगे बढ़ गया। मगर दूसरे लोगों के सिर पर उठे हुए डोल-भरे हाथ रुक गए और पंजे ने उनके कौतूहल का स्वयं ही समाधान करते हुए कहा, “फिर भय्या, सरकार कोई अन्धी थोड़े ही है जो हिन्दू कॉलेज को रुपए-पै-रुपए बाँटती चली जाएगी। आखिर इस साल हिन्दू कॉलेज में जितने लौंडे फेल हुए हैं उतने तो सारे जिले में नहीं हुए।"
पंजे मियाँ लोहे की दुकान करते थे और मुस्लिम स्कूल की कमेटी के मेम्बर थे। किसी ज़माने में उन्होंने पनवाड़ी की दुकान की थी सो पनवाड़ी उनके साथ तभी से जुड़ गया था। हिन्दू कॉलेज के मेम्बर को कोई विरोध न करते देखकर उन्होंने आगे कहा, “हमारे स्कूल में तो इस साल दाखिले को भी जगह नहीं रही । एक तारीख़ से दाखिला चालू हुआ है और समझ लो कि अब तक सारे क्लास फुल हो गए। हमारा हाईस्कूल का रिजल्ट भी जिले में दूसरे नम्बर पर है ।"
हिन्दू कॉलेज के मेम्बर छदम्मीलाल को इस गर्वोक्ति में साम्प्रदायिकता की बू आई । तड़पकर बोले, “अबे, क्या कहदे करें हैं- फस्ट फिर भी आर्यसमाज स्कूल आया है बिजनौर का ! तारीफ़ तो जब थी जब फस्ट आकै दिखाते तुम। हमारा स्कूल फिर भी जिले में दो बार फस्ट आ चुका है, एक बार इंटर में और एक बार हाईस्कूल में ।”
छदम्मीलाल के खानदानी बूढ़े मुकद्दम चाचा कुएँ की मन पर मैल छुटाने के लिए पाँव रगड़ते हुए बड़े ध्यान से इन दोनों की बातें सुन रहे थे। छदम्मीलाल की बात पर वह अपने को न रोक सके; बोले, “रहने दे छदम्मी, रहनै दे, तेरे का भी कोई लौंडा आज लो डिप्टी ना हुआ । दूर क्यों जावै, अपने खानदान में ही देख ले। जित्ते लौंडे पढ़े, कोई साला किसी रोज़गार - सिर लगा ? सब कनकव्वे उड़ा रएँ । बस यो है कि जुल्फों में तेल डाल लेवेंगे, सफेद कपड़े पहन लेवेंगे और चिकने- चुपड़े बनकै घूमेंगे। कोई इनसे पूच्छै - अबै सुसरो, कोई तुम्हारा साँग करना है या तुम्हें कोठे पै बैठना है ! पर पूच्छै कौन ?”
मुकद्दम चाचा अपनी साफ़गोई के लिए बदनामी की हद तक मशहूर थे। पिछले दिनों जब एक हजार रुपए इकट्ठे करके शहर के कुछ उत्साही लोग उनके पास रामलीला का चन्दा माँगने पहुँचे थे तो उन्होंने साफ़ कह दिया था, “मैं तुम्हें धेल्ला नईं दूँगा । सुसरो, सरम तुमैं नईं आत्ती, जिन लौंडों को रात में सीता माँ और भगवान् रामचन्दर बनावौ हो, उन्हीं के साथ दिन में इकलामबाजी करो हो !”
मुकद्दम चाचा की बातें इतनी बेबाक और दिलचस्प थीं कि कुएँ पर रस्सियों की ढील से घड़घड़ाती घिर्रियाँ ख़ामोश हो गईं और लोग मुकद्दम चाचा की बातें सुनने के मूड में आ गए। किसी ने कहा, “मुकद्दम चाचा ! मुस्लिम स्कूल का भी तो कोई लौंडा आज लो डिप्टी ना हुआ !”