छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार
“अबै ना हुआ तो हो जावैगा । वो स्कूल तरक्की कर रिया है। वो लौंडा कू पढ़ावैं हैं, उनसे हल नहीं जुतवात्ते । और तुम्हारा स्कूल जो है, यो सुसरा तनज्जुली की तरफ जा रिया है। धन्धा बना लिया इसे लोग्गों ने। अब मैं क्या कऊँ, सच्ची बात मिर्ची की तरयो लग जावै ।"
बाज़ार से केले लेकर लौटते हुए सत्यव्रत के कानों में फिर स्कूल की बात पड़ी तो वह ठिठक गया। और भी दो-चार तमाशबीन वहाँ इकट्ठे हो गए थे । यहाँ तक कि जो लोग नहाकर घर जानेवाले थे, वे भी मुकद्दम चाचा की बातें सुनने के लिए ठहर गए थे ।
छदम्मीलाल ने सोचा, चाचा की बक छूट गई है, अतः जल्दी से एक डोल और सिर पर डाला और धोती का तहमद लगाकर डोल-रस्सी उठाकर चल दिए । तमाशबीनों की उत्सुकता घट गई। जब मैदान में कोई जवाब देनेवाला नहीं होता तो बात का मज़ा आधा रह जाता है। मुकद्दम चाचा लगभग पन्द्रह मिनट तक बड़बड़ाते रहे और हिन्दू कॉलेज के मेम्बरों को कोसते रहे ।
कुएँ पर फिर शोर बढ़ गया था । घिर्रियों की घड़घड़ाहट और हैंडपम्प की धड़कयूँ में भी लोग एक-दूसरे से बातें करने लगे थे। कल्लू ढाबेवाले का लड़का हाईस्कूल में फ़ेल हो गया था और पंजे पनवाड़ी से उसके मुस्लिम स्कूल में दाखिले की बात कर रहा था, “मैं कौन किसी का दिया खाऊँ हूँ ? सुसरे नाराज होंगे तो होने दो। मुझे लौंडे की ज़िन्दगी बनानी है, भैया! तुम अपने स्कूल में करा दो उसका दाखिला !”
और पंजे पनवाड़ी अब हिन्दू कॉलेज के रिज़ल्ट पर आलोचना कम, अफ़सोस ज़्यादा ज़ाहिर कर रहे थे । आलोचना करनेवाले और बहुत-से लोग वहाँ आ गए थे । तरह-तरह की बातें निकल रही थीं। “...सब पैसा खाते हैं साले ! पढ़ाने लिखाने का नाम नहीं, दिन-भर प्रेसीडेंट और सिकटरी की चिलमें भरते रहते हैं ।"
सत्यव्रत को अध्यापकों के प्रति ऐसे उद्गार अत्यन्त अभद्र लगे ।
तभी किसी ने व्यंग्य में कहा, “स्कूल तरक्की कर रहा है, इस साल पिछले साल से चौगुने लड़के फेल हुए हैं । "
“ आश्चर्य की बात है कि इतनी नक़ल के बावजूद इतने लड़के फेल हो गए। सच कहा है किसी ने कि नक़ल को भी अकल चाहिए।” पंजे पनवाड़ी ने गर्दन हिलाते हुए आँखें मिचमिचाकर कहा । सत्यव्रत को वहाँ खड़े रहना कठिन प्रतीत होने लगा। अतः वहाँ से चल दिया।
मुकद्दम चाचा ने धोती निचोड़कर कन्धे पर डाल ली थी और मन से नीचे उतर रहे थे। पंजे की बात सुनकर बोले, “अरे भैया, लौंडे फेल हुए सो हुए, मिम्बरों का कोई रिस्तेदार बिना मास्टर हुए तो नई रै गिया। जित्ता गुड़ डाल्लोगे, उत्ता मीठा होवैगा । जैसे मास्टर रक्खोगे, वैसी ही पढ़ाई होवैगी। तो फिर दोस किसका है ?"
सत्यव्रत का मन हुआ कि वापस लौट पड़े और उन्हें अध्यापक के गुरु दायित्वों और कर्तव्यों के बारे में बताए। उन्हें प्यार से समझाए कि शिक्षक के प्रति ऐसी धारणाएँ बनाना उचित नहीं है। मगर उसे कॉलेज जाने के लिए देर हो रही थी ।
नए सत्र में कॉलेज खुलते ही यही चर्चा उस दिन हिन्दू कॉलेज में भी थी । कॉलेज-भवन के आँगन में खड़े बीसियों विद्यार्थी रिजल्ट पर बातें करते हुए एक-दूसरे के परचों और नम्बरों के बारे में पूछताछ रहे थे। और टीचर्स - रूम में बैठे हुए चन्द अध्यापक सोच रहे थे कि पिछले साल पचास प्रतिशत रिज़ल्ट रहा, फिर भी गर्मियों की छुट्टियों की आधी तनख़्वाहें काट ली गई थीं। इस साल तो इंटर का रिज़ल्ट दस प्रतिशत ही है। क्या होगा ?
पवन बाबू के दफ़्तर के सामने खड़े उन लड़कों में से कोई अपनी 'काशन मनी' चाहता था तो कोई अपनी मार्क्स-शीट, कोई अपना 'स्कूल- लीविंग सर्टीफ़िकेट' माँग रहा था तो कोई दाखिले का फ़ार्म। ज़्यादातर लड़के हाईस्कूल के पास या फेल होनेवालों में से थे । अतः पवन बाबू पर अपनी-अपनी फ़रमाइशों का तकाज़ा करके वे फिर रिज़ल्ट की चर्चा करने लगते थे ।
हाईस्कूल में अस्सी में से सत्रह लड़के पास हुए थे। पास होनेवाले छात्र रिज़ल्ट का प्रतिशत निकालते हुए फेल होनेवाले छात्रों से लम्बी-लम्बी साँसें छोड़कर कह रहे थे, “देखो भई, यहाँ से तो गाड़ी खिसक गई, अब आगे क्या होता है ?” उनकी संवेदनाएँ अपने-अपने संकटमय भविष्य की अकल्पित घोषणाएँ थीं ताकि फेल होनेवालों को इस कल्पना से तसकीन मिले कि असफलता के रास्ते पर वे अकेले नहीं हैं ।
टीचर्स - रूम के दरवाज़े पर पड़ी चिक के बाहर झाँकते हुए लम्बी साँस छोड़कर, नागरिक शास्त्र के लेक्चरर रामाधीन श्रीवास्तव बोले, “पिछले साल इस सहन में तिल रखने को जगह नहीं थी। मगर इस साल... ?”