निरुपमा–24
बालिका की बात का असर साँप के जहर से भी यामिनी बाबू पर ज्यादा हुआ। प्रेम और संसार की नश्वरता का सच्चा दृश्य उन्हें देख पड़ने लगा। 'यां चिंतसयामि सततम्' आदि अनेक पुण्य-श्लोक याद आने लगे। इसी समय बालिका ने कहा, "अभी मुझे पढ़ा रही थीं, पूछा, उस बेडमिंटन ग्राउंड की घास दो घोड़े दो दिन में चरें तो एक कितने दिन में चरेगा? कितना सीधा सवाल है? हमारे स्कूल में जबानी पूछा जाता है। मैंने ठीक जवाब दिया, पर दीदी ने मुझे मार दिया।"
बालिका जीने की तरफ देखकर सभय चुप हो गई। दासी के साथ निरुपमा धीरे-धीरे उतर रही थी; अचपल-दृष्टि, गौरव की प्रतिमा बालिका व्याकुल हो गई कि पीछेवाली बात इसने सुन न ली हो। निरुपमा नीचे के बरामदे में पहुँचकर धीरे-धीरे नीली के पास गई और उसका हाथ पकड़कर बगीचे की ओर देखने लगी।
नीली को विश्वास हो चला कि नहीं सुना। फिर भी धड़कन थी, इसलिए इस प्रकार स्नेह का दान पाने पर भी खुलकर कुछ बोल न सकी-छड़ी की तरह चुपचाप सीधी खड़ी रही।
यामिनी बाबू के वैराग्य-शतक की शक्ति निरुपमा के आने के बाद से क्षीण हो चली। रूप के साथ आँखों का इतना घनिष्ठ संबंध है।
पतंग एक दूसरे पतंग को जलकर भस्म होते देखता है, पर रह नहीं सकता। इतना बड़ा प्रत्यक्ष ज्ञान भी रूप के मोह से उसे बचा नहीं सकता-वह दीपक को सर्वस्व दे देता है। दीपक अपने ही स्थान पर जलता रहता है।
निरुपमा की दृष्टि में चाह नहीं, ऐसा कौन कहेगा? उसकी दृष्टि से उसकी बातें सुनकर सभी उसे प्यार करने लगते हैं, जो जिस तरह के प्यार का हृदय में अधिकार रखता है।
और वह, वह शमा है जो बाहर की भस्म को ही भस्म करती है। इसलिए वैराग्य-शतक का कृत्रिम भस्म उसके एक ही दृष्टिपात से अपनी स्वर्गीय सत्ता में मिलित हो गया। यामिनी बाबू उमड़कर कुछ क्षण के लिए पहले से हो गए।
तबीयत अच्छी न रहने के कारण निरुपमा की इच्छा दासी को लौटाल देने की थी, पर भाई के बुलावे का खयाल कर चली गई। उसके आने के कुछ ही देर में सुरेश बाबू भी कपड़े बदलकर आ गए। मोटर रास्ते के किनारे लगी हुई है।
यामिनी बाबू के साथ सुरेश बाबू बहन को बुलाकर आगे-आगे चले। नीली को साथ लेकर पीछे-पीछे निरुपमा चली। नीली के जाने की कोई बात न थी। इधर जब से यामिनी की सुरेश बाबू से घनिष्ठता हुई, भाई के कहने से केवल निरुपमा साथ जाती थी, कभी-कभी नीली, यों प्रायः जाने के लिए खड़ी छलकती रहती थी।
सुरेश बाबू डाँट देते थे। कभी-कभी पढ़ने के लिए खुलकर भी कड़ी जबान कह देते थे। वह लाज से मुरझाकर लौट जाती थी। भाई की आज्ञा पर कुछ कहने का अभ्यास निरुपमा को पहले से न था।