निरुपमा–27

चार

सुरेश ने नीली को बुलाकर यामिनी बाबू से कहा, "हम लोग जाते हैं, जल्द काम है, तुम पैदल निरू को लेकर आओ," सुरेश मोटर ले गए।

निरुपमा समझकर एक बार लज्जित हो चंपे के झाड़ की तरफ देखने लगी-यामिनी बाबू से भाव की आँख बचाने के लिए। यामिनी बाबू दिल से खुश हुए। आज उन्हें पहले-पहल निरू के साथ अकेले टहलने का लंबा समय मिला है।

बराबर आकर निरू की उँगलियाँ देखते हुए बोले, "खूबसूरत उँगलियों की चंपे से उपमा दी जाती है।"

"हूँ," उसी वक्त मुँह फेरकर निरू ने कहा, "देह के रंग से भी, पर मुझे बड़े चमगादड़ के पंजे-सा लगता है।"

यामिनी बाबू का आधुनिक श्रृंगार खिल गया। उपमा सोचकर हँसे, मजाक में आया श्रृंगार का पूरा मजा लेकर पूछा, "अच्छा, बंगला में किसकी कविता तुम्हें अच्छी लगती है-रवि बाबू की?"

"नहीं," निरुपमा चलती हुई चंपे की एक पत्ती खोंटकर बोली, "गोपाल भाँड़ की।"

इस बार यामिनी बाबू को एक धक्का लगा। वे सच्चे कवि-प्रेमी हो रहे थे, निरुपमा हास्यप्रिया; गोपाल भाँड के भाव से उन्हें पराभव मिला, पर फिर भी निर्मल हृदय के निकले व्यंग्य से भीतर-ही-भीतर एक आनंद का उद्रेक हुआ जो स्त्री-पुरुषवाले भेदात्मक प्रेम को अभेद मैत्री में बदल देता है;

परंतु यामिनी बाबू प्यासे मनुष्य थे-पानी चाहते थे-स्थूल कर से लेकर पीना, शांति नहीं जो अपने सूक्ष्म स्पर्श से तृष्णा को बुझा देती है।

बोले, "हम जिस संबंध में बँधने जा रहे हैं, तुम्हें मालूम हो ही चुका होगा, उस पवित्र संबंध से मुझे पूर्ण आशा है कि हम सुखी होंगे। दिवस व रात्रि के प्रकाश और अंधकार के प्रवाह में हमारे जीवन के खिले हुए फूल मुक्त भाव से बहते हुए संसार की परिधि को पार कर जाएँगे।"

निरुपमा को जैसे किसी ने गुदगुदा दिया। देर तक अपने को रोके रही। सँभलकर भी उत्तर न दे सकी। चली गई।

मौन को सम्मति-लक्षण समझकर यामिनी बाबू ने कहा, "अब समय अधिक नहीं और खर्च कुछ अधिक करने का विचार है। एक दफा कानपुर जाना होगा। रेहन की एक संपत्ति है। हालाँकि करार की मियाद पूरी हो चुकी है; पर रजिस्ट्री की अभी है, उसका फैसला हो जाए तो रुपये काफी हाथ आ जाएँ।"

बिलकुल मौन रहना निरू को अनुचित जान पड़ा; पूछा, "कैसी संपत्ति?"

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