निरुपमा–28

निरू बगीचे से बाहर निकली घर चलने के लिए। साथ चलते हुए यामिनी बाबू बोले, "एक हिंदुस्तानी की है। दो मकान हैं। बाबा (पिता) ने रेहन रखे थे। अब उनके न रहने से सारा भार मुझ पर है। कॉलेज की छुट्टियों में एक बार हो आऊँगा। मुख्तार को समझा दूँगा।"

"मकरूज रुपयों का इंतजाम कर भी सकता है दूसरी जगह से।"-निरू सड़क के सीधे देखती हुई बोली। रास्ते से कुछ दूर एक चमन में खिले अमलतास के रहे-सहे सुंदर पीले फूलों को प्यार की दृष्टि से देखती हुई चली गई।

"अब उतनी गुंजाइश नहीं, बाबा ने पहले ही हिसाब लगा लिया था," मजाक के गले से यामिनी बाबू ने कहा, "मकरूज का भी देहांत हो गया है। सुना है, उसका लड़का विलायत से डी. लिट. होकर आया है। मैंने देखा नहीं-उसके बाप को भी नहीं, मुमकिन-देखा हो, याद नहीं। मैं जिस जगह पर हूँ, इसके लिए एक डी. लिट्. ने कोशिश की थी। मुमकिन-वही हो।" यामिनी बाबू कुछ याद कर हँसे।

"आप उससे बड़े विद्वान साबित हए।" स्वर को चढ़ाव-उतार से राहत कर निरुपमा ने कहा।

यामिनी बाबू लजा गए फिर सँभलकर बोले, "बात यह है कि सिफ डी. लिट. होने से ही नहीं होता, और भी बहुत कुछ होना जरूरी है। मैं अंग्रेजी-साहित्य का पी-एच. डी. हूँ, पर इतना ही देखकर कोई क्या समझेगा?''

"अगर पी-एच. डी. नहीं।"

"नहीं, मेरा मतलब यह है, मैं कहता हूँ, 'सिर्फ पी-एच. डी. होने से क्या होता है?"

"कुछ नहीं।"

"नहीं, यानी बड़ी-से-बड़ी डिग्री भी आदमी को आदमी नहीं बना सकती, अगर वह दायरे से बाहर अलग-अलग विषयों का और भी ज्ञान प्राप्त नहीं करता।

फिर एक कल्चर भी तो है? मुझे डॉक्टरी हासिल करने के अलावा और भी बहुत कुछ देखना-भालना पड़ा है-सभ्य जातियों की रहन-सहन की बातें-कितना मिला-मिलाया। यह तो मानी हुई बात है कि भारतवर्ष में बंगालियों से बढ़कर कल्चर अपर प्रोविन्स के लोगों में नहीं।

हिंदुस्तानी बेचारे लाख पी-एच. डी., डी. लिट. हो जाएँ, कंधे पर लिट् हो जाएँ, कंधे पर लाठी रखकर चलनेवाली वृत्ति कुछ-न-कुछ रहेगी।"

"यानी देखनेवालों को, हिंदुस्तानी की पदवी की अपेक्षा कंधे पर लाठी ज्यादा साफ नजर आई!"

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