निरुपमा–31
"कौन रामपुर?" सुरेश बाबू ने देखते हुए पूछा।
"जिला उन्नाव में एक मौजा है।"
"अच्छा!'' सुरेश और निरुपमा की हँसती हुई दृष्टि एक साथ मिल गई, एक ही भाव से जैसे।
"रामपुर में आप किस घर के हैं?" सुरेश बाबू ने पूछा।
"मिश्रों के यहाँ का।"
"आप ब्राह्मण हैं?' एक बंगाली सज्जन ने पूछा।
"जी।"
प्रसन्न होकर सब बंगाली हँसे।
"आपके पूज्य पिताजी का शुभ नाम?" सुरेश बाबू ने पूछा मन में निश्चय किए हुए।
"पं. गिरिजाशंकर मिश्र।"
"आपने-माफ कीजिएगा-कहाँ तक शिक्षा प्राप्त की है?" एक बंगाली सज्जन की ध्वनि में भाव का आवेश स्पष्ट हो रहा था।
कुमार हँसा-प्रश्न की सदाशयता समझकर। संयत स्वर से कहा, "मैं लंदन का डी. लिट. हूँ।"
निरुपमा बिलकुल सामने आ गई। ऐसी दृष्टि से देखने लगी, जैसे वहाँ कोई न हो।
"आपका शुभ नाम?" उस बंगाली ने पूछा।
"मुझे कृष्णकुमार कहते हैं। आप अधिक समय न लें; बड़ी कृपा होगी अगर मेरा काम मुझे दें।"
यामिनी बाबू गहरे भाव में डूबे हुए। कितने विषय, कितनी बातें आई-गईं। यह वही व्यक्ति है। अभी-अभी इसकी चर्चा हो चुकी है।
भाव बदला। निरुपमा को देखा, फिर कुमार को नहीं समझ सके कि होटलवाला यही आदमी है। तब अच्छी तरह देखा न था। जेब से एक रुपया निकालकर बढ़ाते हुए अंग्रेजी में बोले, "लो; हम तुमसे जूते पॉलिश करवाना अपना अपमान समझते हैं। तुमने बड़े साहस का काम किया है। यह हमारी सहायता; हमें आशा है, स्वीकार करोगे।"
कुमार ने उसी तरह उत्तर दिया, "आपको धन्यवाद देता हूँ। मैं इस तरह की सहायता नहीं चाहता, क्षमा करेंगे। आप शिक्षित हैं। आपको शिक्षा देना व्यर्थ है; इतने से आप अच्छी तरह समझ लेंगे। अच्छा, आप सब सज्जनों को धन्यवाद।" फिर कृतज्ञ दृष्टि से एक बार निरुपमा को देखकर धीरे-धीरे फाटक के बाहर आया।
यामिनी बाबू निरू को देखते हुए सुरेश से बोले, "इसी के दो मकान कानपुर में हमारे रेहन हैं। इसके बाप ने बाबा के पास रखे थे, इसके खर्च के लिए शायद, और जो काम रहा हो।"
निरुपमा को दिखाकर सुरेश बोले, "इसकी जमींदारी थी रामपुर, सोलहो आने।"