निरुपमा–33
कुमार के लिए नीली के भी मन में सहानुभूति पैदा हुई। उस आलोचना के फलस्वरूप उसने निश्चय कर लिया कि यह अच्छा आदमी है और हर एक शंका का समाधान इससे निस्संदेह होकर किया जा सकता है। कभी-कभी वह होटल जाया करती थी; मैनेजर उसे स्नेह करते थे।
दुपहर के भोजन के बाद जब घरवाले आराम करने लगे, होटल चलकर कुमार से स्नेह प्राप्त करने के लिए नीली चंचल हो उठी। मिलने की कल्पना से हृदय में बाल-चापल्य पैदा हुआ, जिससे उसे एक प्रकार का सुखानुभव होता रहा।
इधर-उधर देखकर घर के लोगों की आँख बचा त्वरित-पद होटल आई। ठीक सामने मैनेजर का कमरा था। एक दृष्टि से मैनेजर को देखा। मैनेजर के मुख पर कुछ ऐसी गंभीरता थी कि नीली की सस्नेह आलाप वाली इच्छा दब गई।
उसे कुछ भय-सा लगने लगा। तब तक होटल का नौकर रामचरण आया और बोला, 'बाबू, अभी नहीं तनख्वाह देना चाहते तो दस दिन बाद दीजिए। मैं अपने भाई के पास जाता हूँ; पर कुमार बाबू के बासन अब हम नहीं छू सकते, हमें रोटी पड़ जाएँगी," कहकर चलने लगा।
इसका साफ मतलब नीली समझ गई। एक कुर्सी पर बैठ गई और उसी तरह कभी मैनेजर साहब और कभी नौकर का मुँह देखने लगी।
डाँटकर मैनेजर साहब ने रामचरण को बुलाया, फिर ऊपर नारायण बाबू और जगदीश बाबू को बुला लाने के लिए कहा।
वह होटल नाम में जितना भड़कीला है, भोजन में उतना सुघर और प्रचुराशय नहीं। नाम के नीचे छोटे अक्षरों में लिखा हुआ है-'वैष्णव भोजन'। ह
ोटल में जो कहार हैं, वे भोजन से भी बढ़कर वैष्णव हैं, यानी आचार-शास्त्र का यथानियम पालन करनेवाले। उन्हें तरक्की की भी प्रचुर आशा है, क्योंकि भगवानदीन अहिर अब ठाकुर बन गया है और किसी का छुआ भोजन नहीं करता। उनके मनोभाव की यहाँ पुष्टि होती है।
यहाँ ज्यादातर दफ्तरों के वे बाबू रहते हैं जो सरकार को कलयुग की प्रतिष्ठा बढ़ानेवाली प्रधान शक्ति मानते हैं और उसकी या उसके रंग से रँगी अन्य ऑफिसों की नौकरी आर्थिक विवशता के कारण करते हैं; पर वे हृदय से पूर्ण रूप से प्राचीन सनातन-धर्म के रक्षक हैं।
उनके विचार में 'यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत' का पूरा चित्र इस समय भारत में देख पड़ता है, और श्री भगवान के अवतार में अब क्यों देर हो रही है-यह उनकी समझ में नहीं आता।
नारायण बाबू और जगदीश बाबू को रामचरण बुला लाया। इतवार को भी आराम नहीं मिल रहा, वे नासिका कुंचित किए हुए सोचते-से आकर कुर्सी पर बैठ गए।
मैनेजर साहब ने कहा, "तो क्या कुमार बाबू को जाने के लिए कह दूँ?"
"यह हम कैसे कहें?" नारायण बाबू ने कहा, "पर यह जरूर है कि उनके रहने पर हम होटल छोड़ देंगे।"