निरुपमा–39
यामिनी बाबू योगेश बाबू की साली की ननद के लड़के हैं। बड़ी छानबीन के बाद उनका पता लगाया गया है। संपन्न हैं, निरू के जैसे नहीं।
कानपुर में उनके बाबा जज थे, पिता वकील। योगेश बाबू ने इन्हें मुलाहजेदार समझकर निरू के विवाह की बातचीत की थी।
यद्यपि कन्या के देखने-भर की स्वतंत्रता बंगाल में दी जाती है, फिर भी इनके विलायती भाव को ताड़कर एक दिन सुरेश से उन्होंने इशारे में यह बातचीत की-परमहंस रामकृष्णदेव की तपोभूमि दक्षिणेश्वर आजकल बंगालियों के कोर्टशिप की जगह हो रही है-दर्शन का बहाना-भर रहता है-और अब उतनी बंदिश चल भी नहीं सकती।
सुरेश पिता के इंगितों का समझदार हो गया था। कवायद शुरू कर दी। योगेश बाबू का मतलब था, निरू सुंदरी है, यह विलायती बेवकूफ जरूर फँसेगा।
जब समझ में आ जाए कि गिरह लग गई, तब इसे कर्जवाला मुआमला समझाकर निरू से पक्की लिखा-पढ़ी करा ली जाए। इस तरह सामाजिक कलंक न लगेगा; और बनाव न बिगड़ा तो लिखा-पढ़ी के बाद भी, इस समय जैसे सुरेश के लिए आमदनी का जरिया रहेगा।
रामलोचन का रुपया जमींदारी खरीदने और बँगले बनवाने में खर्च हुआ, यह साफ है। आमदनी वे घूमने-फिरने और अनेक मदों में खर्च कर चुके थे।
योगेश बाबू दो मंजिल पर अपने कमरे में बैठे हुए थे। नौकर ने यामिनी बाबू के आने का संवाद दिया। योगेश बाबू ने बुला लाने की आज्ञा दी।
यामिनी बाबू ने बड़े भक्ति-भाव से प्रणाम किया। अभ्यस्त स्नेह के स्वर से योगेश बाबू ने आदर किया, "आओ, आओ, बेटा, बैठो।" सामने की कुर्सी पर नम्रतापूर्वक यामिनी बाबू बैठ गए। योगेश बाबू पहले की तरह गंभीर हो रहे।
कुछ देर बाद यामिनी बाबू बोले, "मैं कुछ दिनों के लिए कानपुर जा रहा हूँ।"