निरुपमा–41

सात

कमल निरुपमा की मित्र है। फर्स्ट आर्ट तक दोनों साथ थीं, निरू ने छोड़ दिया, वह बी.ए. में है। पिता ब्राह्म हैं, उसके भी विचार वैसे ही। बहुत अच्छा गाती है। मिलने आई है।

"नमस्कार।"-कमरे में बैठते ही हाथ जोड़कर कहा।

निरू बैठी थी, उठकर खड़ी हो गई, हाथ जोड़कर वैसे ही नमस्कार किया। चेहरा उतरा हुआ।

सँभलने की कोशिश की; पर बहुत कुछ न सँभली। बैठने के लिए कुर्सी ठीक कर दी, "आओ, बैठो," कहकर मुस्कुराई; चिंता की रेखाएँ फिर भी खुली रह गईं।

कमल संयत होकर बैठ गई, "भई, इस समय बैठने की इच्छा नहीं, तैयार हो लो, कुछ टहल आएँ।"

कमल के स्वर से स्नेह की प्रसन्नता निरू में जगने लगी। उसे बैठे-बैठे अच्छा न लग रहा था।

ग्रीन रूम की अभिनेत्री की तरह अलस बैठी रही, जिसका पार्ट देर में आनेवाला है और जिसमें उसे अभिरुचि नहीं। उठकर हाथ-मुँह धोकर साड़ी बदलने गई।

कमल स्वभाव से चतुर है; उसका अंदाजा ठीक लड़े, गलत, वह लड़ाती है। निरू सुंदरी है, इसलिए उसके पास प्रेम-पत्रों की कमी न होगी, उसने सोचा। इसका आधार था।

निरू को प्रेम-पत्र के कारण कॉलेज छोड़ना पड़ा था। राजनीति-शास्त्र के लेक्चरर डॉ. भड़कंकड़ निरू के बगलवाले मकान में रहते हैं, नए-नए विलायत से आए हैं, उन्हें प्रेम के पवित्र संबंध में किसी प्रकार की रुकावट मनुष्योचित नहीं मालूम देती-प्रेम पाप नहीं।

उन्होंने निरू को देखकर कॉलेज की छात्रा के ज्ञान से बढ़ी हुई मानकर, एक चिट्ठी लिखी, जिसमें अपनी सम्मति और विवाह की इच्छा प्रकट की थी। प्रेम के लच्छेदार शब्दों से पत्र सज्जित था।

पढ़कर उत्तर लिखने का ढंग निरू की समझ में नहीं आया। उसने पत्र मामा के हाथ रखा। मामा ने निरू का कॉलेज जाना बंद कर दिया। कमल के लिए यह कम मजाक न था।

वह निरू की सरलता, दिव्यता पर तुष्ट थी। पर वह यही नहीं समझी कि मामा ने भड़कंकड़ के पत्र में निरू के प्रति हुए उसके प्रेम की अपेक्षा निरू की जमींदारी पर पड़ी उसकी दृष्टि को ज्यादा साफ देखा था, साथ-साथ यह भी सोचा था कि जो भक्ति मामा के प्रति उसकी है, उसकी रक्षा मामा के लिए पहले आवश्यक है।

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