निरुपमा–42
कमल उठकर टेबल के ड्राअर खोलने लगी। बंद कर सिरहाने के तकिए का तला देखा। अंदाज ठीक लड़ा।
एक पत्र पड़ा था, निकालकर पढ़ने लगी। नाम और पता देखकर मुस्कुराकर, उसी तरह रख दिया और भलेमानस की तरह कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगी।
निरू तैयार होकर आई। "कहाँ चलना है?" मुस्कुराकर पूछा।
"कहीं नहीं, गोमती साइड तक टहल आएँ।"
"पर लौटकर गाना गाना होगा।" "हाँ, हाँ; समय बड़ा अच्छा है!"
कहकर कमल हँसी। निरू सरल दृष्टि से देखती रही। आईने में एक बार चेहरा देखकर कमल निरुपमा को लेकर बाहर निकली।
देर तक कोई बातचीत नहीं हुई। सीधी निगाह रास्ता देखती हुई दोनों गोमती की तरफ चलीं। कैसरबाग पार हो गया, लोगों की भीड़ घट गई, इक्के-दुक्के रह गए कभी-कभी आते हुए।
"आज-कल तुम्हारे रोमांस का क्या हाल है?" खुली हुई कमल ने पूछा।
"कैसा रोमांस?" निरू ने लजाकर मुस्कुराकर पूछा।
"वही भड़कंकड़वाला?"
"भई, तुम्हें हमसे ज्यादा आजादी है। हमें बहुत वक्त, बहुत वक्त नहीं-अक्सर घरवालों की मर्जी पर रहना पड़ता है।"
"अच्छा, तो इधर का कोई मर्जीवाला रोमांस हो तो बतलाओ।"
निरुपमा मुस्कुराकर कमल को देखने लगी।
"इसी तरह मुस्कुराती देखती रहो, यही मैं चाहती हूँ।'' निरुपमा को मर्म तक गुदगुदाकर उभाड़ने के लिए कमल ने कहा, "अगर कोई प्रसंग चल रहा है तो उससे तुम सुखी हो, इसके ये मानी है, यानी केवल तुम्हारे घरवालों की मर्जी नहीं।"
कमल की 'यानी' से निरुपमा को हँसी आ गई; मजाक में बनाकर पूछा,
"अर्थात?"
और तेज होकर कमल बोली, "अर्थात उनसे तुम्हारे मामा नहीं शादी कर रहे।"
निरुपमा समझकर चुप हो गई। कमल ने बनावटी क्रोध से कहा, "देखो, विवाह मजाक नहीं, एक जिंदगी-भर का उत्तरदायित्व है-बिना समझे, बिना मन मिले।"
सोचती हुई बोली, "तुम मेरी सखी हो, मुझसे छिपाना ठीक नहीं; मैं तुम्हारा उपकार कर सकती हूँ," कहकर उत्तर की प्रत्याशा में कृत्रिम गंभीर हो गई।
वह निरुपमा से उसके प्रेम और विवाह की कथा सुनकर सुखी होना चाहती थी और दुख में साथ देना एक सच्ची सखी की तरह।
निरू को कष्ट होने लगा। वह विवाह मनोनुकूल नहीं, फिर भी वह कह नहीं सकती, कुमारवाला प्रसंग जिसका सत्य की प्रीति से आगमन हुआ था, वह किसी तरह नहीं कह सकती।
समझ रही है-खुलकर अपने गौरव, प्रतिष्ठा और मर्यादा से, छाँह में आनेवाले भरे घड़े की तरह सूर्य के बिंब से रहित हो जाएगी। रुख न मिलाती हई, संयत होकर बोली, "भई, हम लोगों की कोई अपनी मर्जी नहीं होती।"