निरुपमा–45

आठ

निरू ने कमल को स्नेहपूर्वक बिदा किया। कमल से वह कुछ खुल गई, इसके लिए मन में कुछ लज्जित हुई। पर, कमल उसकी हिताकांक्षिणी है, सोचकर आश्वस्त हुई।

ऐसी छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना ठीक नहीं, आखिर यह गीत हर बंगाली के गले पर है, कैसी पर्दगी है! और वह पर्दा करती है।

उसके समाज में वर पक्ष अच्छी तरह कन्या को देख सकता है, पर कन्या के लिए वह आजादी नहीं। विवाह जैसे केवल वर का हो रहा है, वह ही हर तरह वरेण्य है।

यामिनी बाबू उसके मनोनीत नहीं है, जिससे विवाह करना है। पर उसे मनोनीत कर विवाह करना है। वह यंत्र की तरह है, स्वेच्छानुसार छेड़कर राग मिलाए-यह संस्कृति।

उपाय के लिए सोचा, पर चारों ओर मामा नजर आए। मामा के लिए जैसा कहा जाता है, कमल जैसा कह गई है, मुमकिन है, सच हो।

उसे हृदय में अस्वस्ति मिलती थी, यह वह मालूम कर चुकी है। यह भी देख चुकी है कि वैषयिक बातचीत, उसकी जमींदारी के संबंध की, अगर कुछ होती रहती थी और उस समय वहाँ वह जाती थी तो बंद हो जाती थी।

उसे यह भी नहीं मालूम कि अब तक कितना रुपया जमा हुआ। उसे रुपये की भूख नहीं। जमींदारी थी, वह भी पिता की स्मृति के रूप में न मिली होती तो वह न चाहती; और सत्य के मार्ग पर वह मामा और सुरेश दादा को सभी कुछ दे सकती है; पर इस तरह की कलुषित भावना लोगों में क्यों फैली है?

-अब वह स्वार्थ और परार्थ को अच्छी तरह समझने लगी है, उसकी जमींदारी में, उसी की जबकि वह है, उसी की जहाँ रिआया है, स्वार्थ का बर्ताव प्रबल है या परार्थ का, वह नहीं जानती।

परार्थ का बर्ताव किया जाए, तो अच्छी तरह किया जा सकता है, क्योंकि उसका खर्च बहुत थोड़ा है। कृष्णकुमार का क्या हाल है? उसी की जमींदारी का रहनेवाला है।

निरुपमा में एक भेद पैदा हो गया। समस्त सात्त्विकता, जिसे असात्त्विक प्रभाव पड़ता हुआ आवृत्त कर रहा था, जैसे एक साथ जगकर केन्द्रीभूत हो विचार में बदल गई।

उसे मालूम हुआ, घरवालों की आँखों में वह किशोरी थी और अपने को भी वैसी ही समझती थी, वह भ्रम था; वह समय, बहुत समय हुआ, पार हो चुका है। वह राय रखती है।

सुबह उठकर हाथ-मुँह धोकर निरुपमा बैठी थी कि उसकी दासी ने आकर कहा कि मामा बाबू बुलाते हैं।

निरुपमा उठकर मामा के पास चली। कमरे में उनकी गद्दी की बगल में बैठकर नत आँखों से पूछा, "माँ आ गई?"

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