निरुपमा–51
दस
रामपुर आते-आते निरुपमा के दिल का क्या हाल था, वह काव्य का विषय है।
नीली भी नील आकाश की चिड़िया थी, चपल सुख के पंख फड़काकर उड़ती हुई।
मुश्किल से एक रात डेरे में रही। सुबह होते ही गाँव घूमने निकली। निरू ने रोका नहीं। केवल उसे सजा दिया। कुछ कहा भी नहीं।
नीली को कोई भय नहीं। वह जानती है, उसकी दीदी वहाँ की जमींदार है। वहाँ की कुल जमीन पर उसकी दीदी का अधिकार है।
वहाँ उसकी गति अप्रतिहत, शक्ति अपराजेय है, वह वहाँ के आदमियों को कटाक्ष मात्र से अमीर और गरीब बना सकती है, उस दीदी की वह छोटी बहन है।
लोगों में बड़प्पन का एक प्रभाव पड़ गया। रात को काफी बातचीत हो चुकी थी। बड़े-छोटे प्रायः सभी सुरेश बाबू के पास हाजिरी दे आए थे।
कुछ से सुरेश ने हली के हल ले आने के लिए कहा था। यद्यपि लोग अपने खेत नहीं बो पाए थे, फिर भी जमींदार का काम आगे होता है, सोचकर चुप रह गए थे।
नीली जिस गली से निकलती है, सब उसे एक दृष्टि से देखते हैं। उसका पहनावा ऐसा है, सबकी आँखों में ऐश्वर्य का भाव मुद्रित हो जाता है।
लड़के, लड़कियाँ, उसकी उम्र के होने पर भी उससे बोलने का साहस नहीं करते। वह भी विशेषता की दृष्टि से उन्हें नहीं देखती।
उसका लक्ष्य और है। सामने एक पंडितजी स्नान कर राम-नाम जपते हुए आ रहे थे, नीली को उन पर श्रद्धा नहीं हुई, उनका मुख और मुद्रा देखकर।
पर रामपुर के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए उन्हें ही उसने पंडित समझा। यद्यपि उनके प्रति नहीं, फिर भी, प्यार से भरे और प्रतिष्ठा से मजे, ललित और ओजस्वी कंठ से उसने पूछा, "कुमार बाबू का कौन-सा मकान है?"
"कौन कुमार बाबू?" वृद्ध ने एक धक्का खाकर जैसे पूछा।
"कृष्णकुमार बाबू, और कौन कुमार बाबू!" नीली ने तेज निगाह डाली।
"वह है, वह। जो पक्का मकान है," कहकर वृद्ध घृणा से मुँह फेरकर पूर्ववत श्रद्धापरायण हो राम-नाम जपते हुए चले। कुछ याद कर लोटे से चार बूँद पानी मुँह में डाल लिया।
नीली बिना हिचक के भीतर घुस गई और जूते समेत आँगन में जाकर खड़ी हुई; एक प्रौढ़, किंतु आँखों को तृप्ति देनेवाली मूर्ति देखकर उसी तरह बिना रुकावट के पूछा, "यह कुमार बाबू का मकान है? कुमार बाबू आपके कौन हैं?"