हिरनी

कृष्णा की बाढ़ बह चुकी है; सुतीक्ष्ण, रक्त-लिप्त, अदृश्य दाँतों की लाल जिह्वा, योजनों तक, क्रूर; भीषण मुख फैलाकर, प्राणसुरा पीती हुई मृत्यु तांडव कर रही है।

सहस्रों गृह-शून्य, क्षुधाक्लिष्ट, निःस्व जीवित कंकाल साक्षात्‌ प्रेतों से इधर-उधर घूम रहे हैं। आर्तनाद, चीत्कार, करुणानुरोधों में सेनापति अकाल की पुनः पुनः शंख-ध्वनि हो रही है।

इसी समय सजीव शान्ति की प्रतिमा-सी एक निर्वसना-बालिका शून्यमना दो शवों के बीच खड़ी हुई चिदम्बर को दीख पड़ी।

“ये तुम्हारे कौन हैं?” शवों की ओर इंगित कर वहीं की भाषा में चिदम्बर ने पूछा। बालिका आश्चर्य की तन्मय दृष्टि से शवों को कुछ देर देखती रहकर शून्य भाव से अज्ञात मनुष्य की ओर देखने लगी।

चिदम्बर ने अपनी तरफ से पूछा-“ये तुम्हारे माँ-बाप हैं?” बालिका की आँखें सजल हो आईं। चिदम्बर ने सस्नेह कहा-“बेटी, हमारे साथ डेरे चलो, तुमको अच्छा-अच्छा खाना देंगे।”

बालिका साथ हो ली। उसकी अन्तरात्मा उसे समझा चुकी थी कि उसके माता-पिता उस नींद से न जगेंगे। उसे माता-पिता को सचेत करने का इतना उद्यम पहले कभी नहीं करना पड़ा, यहीं उसके प्राणों में उनके सदा अचेत रहने का अटल विश्वास हुआ।

पहले चिदम्बर ने अच्छी तरह, उसे अपना दुपट्टा पहना दिया, फिर उँगली पकड़कर धीरे-धीरे डेरे की ओर चला, जो वहाँ से कुछ ही फासले पर था।

अकाल-पीड़ितों की समुचित सेवा के लिए मदरास के 'पतित-पावन संघ' के प्रधान निरीक्षक की हैसियत से संघ को साथ लेकर चिदम्बर वहाँ गया था।

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2 Comments

Babita patel

24-Aug-2023 06:21 AM

very nice

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madhura

17-Aug-2023 04:38 AM

very nice

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